मैंने खत खोल कर पढ़ना शुरू किया। खत का एक एक शब्द आज अलग ही नजर आ रहा था। मेरे मन का तूफान रूकने का ही नाम नहीं ले रहा था। दिमाग तो जैसे काम ही नहीं कर रहा था। पता नहीं कितनी देर तक मैं ऐसे ही बैठी रही। जब थोड़ा होश आया तो कांपते हुए हाथों से खत ऊपर उठाया और सोचा कि जो पहले पढ़ा वो बदल जाए। इसलिए दुबारा पढ़ना शुरू किया, "हैल्लो, कैसी हो? पता है इस बार खत जल्दी लिख रहा हूं। पर क्या करूं बात ही कुछ ऐसी है। तुम तो जानती हो कि जल्द ही मेरे फाइनल ईयर के एक्जाम होने वाले हैं। और मेरे पापा चाहते हैं कि मैं अपने भाई कि तरह उनका बिजनीस में हाथ बटंवाऊ। उसमें मुझे भी दिक्कत नहीं है। पर वो मेरी शादी भी करवाना चाहते हैं। पता है तुम्हारे लिए मुश्किल है लेकिन मैं तुमसे प्यार करता हूं तो किसी और से कैसे शादी कर सकता हूं? मैं ये नहीं कह रहा कि हम अभी शादी कर लेंगे। लेकिन मैं तुम्हारे मन की बात जानना चाहता हूं। तुम्हारे जवाब का इंतजार करूंगा।"
मैंने आंखें बंद कि और सोचा कि क्या करूं? फिर दूसरे खत के बारे में याद आया। आंखें खोल कर दूसरा खत पढ़ा, "करता हुआ? तुमने जबाव नहीं दिया। पता नहीं तुम को खत मिला भी है या नहीं। मैं तुम्हारे खत का इंतजार कर रहा हूं। इस बार जल्दी जवाब देना।" ये खत पांच दिन पहले आया था। मुझे खुद ही समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं? किसी से इस बारे में बात भी नहीं कर सकती थी। मुझे जो फैसला लेना था वो खुद ही लेना था।रात भर नींद नहीं आई। सोचती रही कि क्या करूं? क्या ये उसका मजाक है? नहीं आज तक इतने सालों में उसने कोई मजाक नहीं किया। फिर वो ऐसा मजाक क्यो करेगा? अगर ये सच हुआ तो। सोच रही थी उसका फोन नम्बर होता तो कम से कम बात ही कर लेती। एक तरफ मेरे घर वाले। अभी तो मैं 11वी में हूं। पापा चाहते हैं कि मैं पढ़ू। और मैं भी तो पढ़ना चाहती हूं। कम से कम गे्जुएट तो कर लूं। इतनी जल्दी घर वाले नहीं मानेंगे। दूसरी तरफ वेन्दात। उसके लिए मेरे मन में जो प्यार है उसको कैसे अनदेखा कर दूं? जो उसके बारे में सोचती हूं उसको कैसे भूल जाऊं? पर क्या उसके घर वाले मान जाएंगे? भगवान अब आप ही मदद कर सकते हो। वो रात भी लम्बी लग रही थी। आंखों से नींद भी गायब थी। जैसे तैसे वो रात बीती। और मैं फैसला ले चुकी थी।अगले दिन घर वाले से बच कर खत लिखने बैठ गई। जानती थी फैसला लेना मुश्किल है लेकिन फैसला लेना तो था। जानती थी कि इस खत के बाद मैं बहुत पछताऊंगी। पर मैं फैसला ले चुकी थी और सबकी भलाई इसी में थी। मैं सेलफिश नहीं हो सकती थी।कांपते हुए हाथों से लिखना शुरू किया, "एक्जाम की वजह से कल खत लेने गई थी। पढ़े तुम्हारे दोनों खत। बहुत सोचा कर से मैंने इस बारे में। मैंने तुम्हें बस अपना फै्न्ड ही मना है इससे ज्यादा कुछ नहीं। बधाई हो तुम्हारे बिजनीस के लिए और हां शादी के लिए भी।अब से मुझे खत मत लिखना। हम दोनों के लिए यही सही होगा।" खत की आखिरी लाइन लिखते लिखते आंसू आ गए। आंसू जल्द ही बाजू से पोछ लिए कि कहीं खत पर ना गिर जाए। बिना कुछ ओर सोचे खत को लिफाफे में डाल कर पैक कर दिया। घर से बहाना बनाकर पोस्ट करने के लिए निकल गई। पोस्ट बाक्स में लिफाफा डालने से पहले सोचा कि डालूं या नहीं। मन हुआ कि नहीं डालूं पर दिमाग ने कहा डाल दे। यही सही है उसके लिए भी। उसको उम्मीद देना ठीक नहीं होगा। कुछ दिनों में वो सबकुछ भूल जाएगा। अन्दर से आवाज आई, "और तू?" गहरी सांस लेते हुए बड़बड़ाई, "शायद मैं भी।" बिना आगे कुछ सोचे खत डाल दिया। डालने के बाद होश आया। क्यो डाला? मन तो हुआ निकाल लूं। लेकिन ताला लगा हुआ था।
भारी कदमों से घर वापस आ गई। आते ही बिस्तर पर लेट गई। मम्मी ने चिंता से पूछा, "निशा, क्या हुआ? सुबह से देख रही हूं तेरे को। तबियत तो ठीक है तेरी।" मैंने भर्राये हुए गले से कहा, "हां तबियत तो ठीक है। तक गई हूं एक्जाम की वजह से।" "ठीक है। आराम कर। माया को बोल देती हूं कि वो कविता की मम्मी को बोल देगी कि तू नहीं आ रही।" मम्मी माया को आवाज लगाते हुए बाहर निकल गई। और मैं तकिए को लेकर बहुत रोई।कुछ दिनों बाद, दर्द तो कम नहीं हुआ लेकिन दर्द के साथ जीने की आदत पड़ गई। एक दो बार पोस्ट आफिस जाकर भी पूछा कि कोई खत आया है क्या? पर कोई खत नहीं आया। धीरे धीरे जिन्दगी पहले जैसी हो गई लेकिन उसको भूला पाना आसान नहीं था।
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