अध्याय 2

हालांकि मैं जानती थी फिर भी ना जाने क्यों मैं उस दिन घर से बहाना बनाकर निकल गई कि स्टेशनरी लेने जा रही हूं। और सीधे पोस्ट आफिस चली गई। पोस्ट आफिस के बाहर जाकर दुबारा सोचा कि अन्दर जाऊं कि नहीं। फिर दिमाग में आया कि जाकर देखने में क्या जाता है? अन्दर जाकर पोस्ट मास्टर से जाकर बोली, "अंकल..... कोई खत आया है.... निशा के नाम का.... वेन्दात दिल्ली से"...पहले तो उन्होंने मेरे तरफ ऐसे देखा जैसे मैंने कोई गुनाह कर दिया हो फिर बोले, "देखता हूं।" और रजिस्टर में देखने लग गए। इधर मेरा दिल तेजी से धड़कने लगा। मन तो कह रहा था कि आया होगा जबकि दिमाग मना कर रहा था। इसी उधेड़बुन में थी कि पोस्ट मास्टर अंकल ने आवाज दी, "ये लो खत।" मैं खत लेकर पोस्ट आफिस के बाहर तो आ गई लेकिन अभी तक यकिन नहीं हुआ था कि ये हकीकत है कि नहीं। लग रहा था कि सपना देख रही हूं और जल्द ही सपना टूट जाएगा। इसलिए खुद को ही हल्का सा मारा और कहारते हुए अपने हाथ में लिए हुए ख़त को देखते हुए बड़बड़ाई, "ये सपना नहीं है।" तभी ध्यान आया कि अब घर जाना चाहिए नहीं तो मम्मी पूछेगी कि इतनी देर कहां लगा दी। स्टेशनरी की दुकान से रजिस्टर और पेन खरीदा और रजिस्टर में ही वो ख़त छुपा दिया। घर पर आकर रजिस्टर भी स्कूल बैग में रख दिया। ऐसा लग रहा था कि कोई जंग लड रही हूं। अभी तो शुरुआत थी। अभी तो खत पढ़ कर उसको छुपाने से लेकर ज़बाब देना भी था। पूरा दिन ये सोचते हुए गुजरा कि कब और कहां पढूं? अब मुसीबत तो सर ले ली थी कर भी क्या सकती थी?

पूरा दिन यही सोचने में निकल गया कि अब खत कहां और कैसे पढ़ा जाए। रात को खाना खाने के बाद मम्मी को बोल दिया, "मम्मी, मैं छत पर जा रही हूं पढ़ने के लिए।" तभी माया बोली, "क्यों? नीचे पढ़ने में क्या दिक्कत हैं?" मैंने चिढ़ाते हुए बोला, "तू..... तू मुझे पढ़ने नहीं देती.... कभी ये बता... कभी वो। और वैसे भी कर मुझको मैथ्स की कापी सबमिट करनी है। मम्मी, इसको बोलो मेरे को डिस्टर्ब ना करें।"मम्मी उसको डांटते हुए बोली, "तू उसको डिस्टर्ब नहीं करेंगी वरना तेरी शिकायत तेरे पापा से कर दूंगी।"वो तुनकर बोली, "मैं कौन सा इसको हर समय डिस्टर्ब करती हूं? वो तो जब कुछ समझ नहीं आता तभी पूछती हूं।"उसकी बातों को नजरंदाज करते हुए, मैंने मम्मी से पूछा, "मम्मी, मैं जाऊं छत पर पढ़ने के लिए। "

मम्मी के हामी भरते ही मैं फटाफट से छत पर आ गई। छत की लाइट ऑन करके, दरवाजा बंद किया जिससे कोई आ ना जाए और फोल्डिग पलंग पर अपना समान रखा और आराम से बैठ गई। फिर खत खोला और पढ़ा, "हैल्लो, कैसी हो? जब से वापस आया हूं। यही सोच रहा हूं कि क्या लिखूं? और बताओ क्या क्या किया पिछले दिनों? अपनी पसंद और नापसंद बताना। कोई अपनी बनाई हुई डाइंग भेजना। मुझे खत जरूर लिखना। मैं इन्तज़ार करूंगा और दूसरे खत का इंतजार करना। " और भी बहुत कुछ लिखा था उसने अपने बारे में। मुझको भी उसको खत लिखना था पर समझ नहीं आ रहा था कि क्या लिखूं? इसलिए उसके ही खत का जवाब दिया। उसके खत को अपनी कापी के कवर के अन्दर छुपा कर कवर अच्छे से चिपका दिया जिससे वो ख़त किसी और के हाथ ना लगे। अगले दिन खत पोस्ट बाक्स में डाल दिया। ठीक अगले महीने फिर उसका खत आया। अब तो हर महीने उसके खत आने लगे। खतों के जरिए ही एक दूसरे को जानने लगे।

यही सिलसिला चार साल तक जारी रहा। उसका ग्रेजुएशन कम्पलीत होने वाला था, उधर मेरा ११थ।

माया और मैं पढ़ाई कर रहे थे कि माया ने पूछा, "तूझे ब्यूटी पार्लर का कोर्स सिखना था ना?"मैं बोली, "हा, क्यो? वैसे भी तू पढ़ाई पर ध्यान दें तेरे बोर्ड के एक्जाम है अबकी बार।" "हां, वो तो है। वैसे तेरा ब्यूटी पार्लर का कोर्स करने का मन है तो मेरी फ्रेन्ड की मम्मी तुझको सीखा देगी। उनको हेल्पर की जरूरत है तो बदले में तू उनकी हेल्प कर देना। कहे तो मैं पापा से बात करूं।" वो बोली।मैंने मुंह बनाते हुए बोला, "हां वैसे भी पापा तेरी तो सुनते हैं।" वो हंसते हुए बोली, "हां वो तो है।" उसने पापा से बात की और पापा मान गए। अब काॅलिज से आने के बाद में ब्यूटी पार्लर के कोर्स के लिए भी जाने लगी। इसी वजह से थोड़ा बिजी हो गई। जब कोर्स कम्लीट हो गया तो आन्टी बोली, "निशा, तेरे हाथ में सफाई है और मुझे हेल्पर की भी जरूरत है। काॅलिज के बाद मेरी हेल्प कर दिया कर।" "आन्टी, मैं मम्मी पापा से पूछ कर बताऊंगी।" मैंने कहा।"तू कहे तो मैं तेरी मम्मी से बात करूं क्या?" उन्होंने पूछा।"पहले मैं बात करके देखती हूं।" मैंने कहा।

मैंने उनको बोल तो दिया था लेकिन मन ही मन डर लग रहा था कि कैसे बात करूं?रात को खाना खाने के बाद मैंने पापा से पूछा, "पापा, आन्टी बोली रही थी कि मैं काॅलिज के बाद उनकी हेल्प करवा दूं।"पापा मेरी तरफ देखते हुए बोले, "तू सोच इस बारे में। लेकिन तेरी पढ़ाई पर इसका असर नहीं पड़ना चाहिए।" मैंने खुश होते हुए कहा, "पापा, मैं अच्छे से पढ़ूंगी।" पापा मुस्कुराते हुए बोले, "बहुत दिन हो गए तूने कुछ मीठा नहीं खिलाया।" मैं हंसते हुए बोली, "अभी हलवा बना कर लाती हूं।" हलवा सबने मिलकर खाया। अब मैं और बिजी हो गई। काम के साथ साथ पढ़ाई भी करनी थी अच्छे से।उधर खत में वेदान्त ने फोन नम्बर मांगते हुए कहा, "अब तो मोबाइल भी आ गए हैं। अबकी बार नम्बर भी भेजना क्योंकि कभी तुम से बात करने का मन हुआ या कुछ इमरजेंसी हुई तो।" मैंने ज़बाब में लिखा, "पापा के पास ही मोबाइल रहता है अगर उनको पता चल गया तो बहुत बड़ी दिक्कत हो जाएगी। और वैसे भी खत तो समय से आ जाता है।उसका ज़बाब आया, "ठीक है। अगर किसी दिन खत देख लिए तो क्या बोलोगी?" मैंने ज़बाब में लिखा, "उसकी चिंता तुम मत करो। क्योंकि खत पढ़ने के बाद में खत फाड़ देती हूं। और प्लीज बुरा मत मानना। क्योंकि मैं रिक्स नहीं ले सकती।पता नहीं वो करता सोच रहा होगा लेकिन जब उसका खत मिला तो मेरे मन का सारा बोझ उतर गया, "तुम चिंता मत करो। मैंने बुरा नहीं माना। तुम खत के ज़बाब देती हो वही काफी है। वैसे मैं भी पढ़ने के बाद फाड़ देता हूं। और हां तुमने जो अबकी बार डाइंग भेजी थी। वो बहुत अच्छी थी। तुम पेंटिंग क्यो नही सीख लेती।" मैंने उसको नहीं बताया था कि मैं पार्टटाइम जॉब कर रही हूं। इसलिए ये कह कर टाल दिया कि सोचूंगी।

इधर एक्जाम आने वाले थे, उधर आन्टी के पास काम भी ज्यादा आ रहा था तो उनको भी समय ज्यादा देना पड़ रहा था। इसलिए मैं खत लेने भी नहीं गई। सोचा अभी तो खत आया ही था, एक्जाम के बाद आराम से जाऊंगी। वैसे भी उसके भी तो एक्जाम होंगे तो कहां खत लिखा होगा।

लास्ट एक्जाम देने के बाद, काॅलिज से आते समय पोस्ट आफिस गई तो अंकल ने दो खत देते हुए बोला, "ये लो बेटा, तुम्हारे खत। बहुत दिनों बाद आई हो।" अब अंकल भी मुझे पहचान गए थे। मैं मुस्कुराते हुए बोली, "हां, अंकल, एक्जाम थे ना उसी में बिजी थी।" खत लेकर बाहर तो आ गई थी लेकिन समझ नहीं आ रहा था कि जब मैंने पहले खत का जबाव नहीं दिया तो उसने दूसरा खत क्यो लिखा?

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