सप्त क्रांति विचार यात्रा और उसके बाद : सुरेन्द्र मोहन
भारत मंे प्राचीन काल से ही यात्रओं का चलन राहा है। सती के विरह में षिव ने उसके शव को कंधे पर उठा कर यात्रा की थी। शंकराचार्य ने केरल से कषमीर तक की यात्रा की धर्म प्रचार के लिय। गुरू नानक की यात्रा तो पूरे भारत मंे हुई और भारत से बाहर भी। हम लोगो की याद में आचार्य विनोबा भावे की भूटान यात्रा प्रसिद्ध र्हु और फिर हम मंें से ही एक चंद्रषेखर की भारत यात्रा मंें तो हमारे बहूत से सदयात्री शामिल थे। वह यात्रा देष को समझाने के उददेष्य से की गई थी । उसके बाद शयद शंकराचार्य की यात्रा के बाद पहली बार, कुछ केंद्र बने , भारत यात्रा केन्द्र जैसे शंकराचार्य की यात्रा से मठों की स्थापना हुई थ्ािी। इन दोनो यात्राओं से यह एक समानता की कि इस बात का ध्यान रखा गया कि उस स्थयी यादगार बनें।
डॉ राम मनोहर लोहिया सप्त क्रांति विचार यात्रा वैसे कुछ न कर पाये तो भी यह यूसुफ मेहर अली स्मृति यात्रा \(सन् 2002\) की तरह शायद एक संगठन की जन्म दे सकें। उस स्मृति यात्रा के बाद बनी यूसुफ मेहर अली युवा बिरादरी । सप्त क्रांति विचार यात्रा में राष्ट्र सेवा दल के साथ यूसुफ मेहर अली युवा बिरादरी शामिल है और उस यात्रा के संगइन कर्त्ता मदन मराठे इस यात्रा के संगठन कर्ताओं में प्रमुख है। युवा समाजवादी नेता डॉ सुनीलम् के मार्ग दर्षन में यह यात्रा ज्यादा कारगर सिद्ध हो रही है क्योंकि एक ओर तो यहा यात्रा डॉ लोहिया के जन्म शताब्दी समारोह का भाग है और डॉ सुनीलम्, यूसुफ महरअली सेंटर के अध्यक्ष और स्वतंत्रता सेंनानी डॉ जी\. जी\. पारिख और राष्ट्र सेवा दल के अध्यक्ष भरत लाटकर की मदद से उस की तैयारी भी सुनियोजित भी की है।
ज्ब इस सप्त क्रांति विचार यात्रा सम्बंधी विचार किया गया तो सुनीलम् देष के विभिन्न भागों में समाजवादी कार्यकर्ताओं से मिले ताकि उनसे तैयारी की बातचीत हो जाय इस क्रम में भोपाल में सप्त कांति सम्मेलन हुआ। एक से आठ अगस्त तक यूसुफ मेहर अली सेंटर तारा में यात्रा यात्रा में भाग लेने वाले साथियों का प्रषिक्षण हुआ। 9 अगस्त को आजाद मैदान से यात्रा की शुरूआत हुई जिसे वहॉ आजाद हिन्द सेना के कप्तान अब्बास अली और भारत छोडो आंदोलन के संघर्षषील साथी डॉ शांति पटेल व डॉ\. जी\. जी\. परिख का आषीर्वाद मिला। साने गुरूजी सकुल दादर मे प्रसिद्ध समाजवादी नेता जार्ज फर्नाडीस का । भोपाल, तारा, मुम्बई के आजाद मैदान और दादर में जो बुजर्ग समाजवादी साथी शामील हुए उन में सर्वश्री पुरूषोत्तम जी, प्रो\. रमेष दीक्षित, पाटीर गुरूजी, अबू आज़मी भरत लाटकर, मन्नालाल, सुराना , जया जेटली, मंगला परीख, मंजू मोहन के साथ पूर्व मंत्री दलवाई और रीवा के साथी भी थें।
यात्रीयों के अनुभवो को शामिल करने से इस पुस्तक का महत्व बढ गया है। और डॉ सुनीलम् के लेख में यात्रा का सर्वाभ्या चित्र मिलेगा। ही। यह उल्लेखनीय है कि यात्रा से पहले ही उन्होने सप्तक्रंाति कर एक पुस्तिका प्रकाषित कि थी। निःसंदेष कई स्थानो पर यात्रियों को बहुत से ऐसे नौजवान मिले जो समाजवादी और डॉ लोहियाजी या उनके सप्त क्रांति विचार के सम्बंध में बहुत मामूली जानकारी रखते थें और कुछ तो कुछ भी नही। उनकी उत्सुकता बढी होगी। जो युवा आज की राजनीति की मुख्य धारा के भटकान आर्थिक विकास की विनाषकारी दिषा और वर्तमान पीढियों के उपभोजवाद से त्रस्त हो कर नई दिषा को खोज रहे है। उनको इस यात्रा से कुछ आषा मिले, कुछ विष्वास जमेे तो इस यात्रा का पहला उद्देष्य सफल माना जायेगा।
ऐसे युवा साथियों की ही तरह यह सवाल पूछ रहे है कि इस के बाद क्या । इस का एक तात्कालिक उत्तर हेै कि 23 मार्च 2011 तक लोहिया जन्म शाताब्दी समारोह में कार्यक्रमो की जो रूप रेख बन रही है। उसे अपने इलाकों में अमली जामा पहनाएॅ। यात्रा के दौरान जो मुददे यात्रियों ने प्रचारित किये पूरे कार्यक्रमे को मार्च 2011के बाद भी चलाते रह सकते है।
प्रंतु क्या एक राजनीति की मुख्य धारा के भटकाव के मुकाबले में एक ऐसी लोकषाही बनाने का इरादा है जिसकी कल्पना जो जी\.जी\. ने सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन में की थी। उसे तो जनता पार्टी के सत्ता प्रेम और सत्ता कलद ने खालिया था। उस से सीख कर आज की दुर्गति को ध्यान में रखकर अब क्या किया जा सकता है।
आज की मांग बुनीयादी बदलाव की है। तात्कालीक और स्थानीय अन्याओं विस्थापना विषेष आर्थिक केन्द्रो के नाम पर पूूजीवादी की भूमी हडपो षडयंत्र खंती की पैदाकर के दामों की लूट, मजदूरो की छटनी कमर तोड महॅगाई बनो की कटाई और पर्यावरण की क्षति को संयोजित करके उन्हें एक निष्चित वैचारिक दिषा लेनी जरूरी है। उसी मे उनका स्थायी महत्व है। नर्मदा आन्दोलन कमें पच्चीस वर्ष के देष कों चेतया तो है कि विस्थापन को संहत्रे नही। लेकिन विष्व पुंजीवादी के तूफान मेे ऐसी चेतावनीयॉ डूब जाती है। यह एक उदाहरण मात्र है जो मेधा पाटकर और उनके साथियों के अथक परिश्रम और कुर्बानी की प्रषंसा करते हुए भी उस की सीमा का संकेत करता हैं मुलताई का किसान आंदोलन को उस से भी तंग सीमा में बांधा था। इसीलिये सब आंदोलनों को एक स्थायी दिषा मिली जो देषभर की समाज की आर्थिक परिस्थिति से उदित होगी।
विगत 18 बरसों में विभिन्न केन्द्र सरकारो ने विष्व बैक और पूजीवादी देषो के दबाव ओर देषी पूजीपतियों के सर्वग्राही लालच के चलते जो यह पकडी हैं उसने वर्ग संघर्ष के आसय को पूरी तरह सामने ला दिया है। जैसी लूट इन दो दषको में हो रही हैं पराधीन भारत में ही सम्भव थी। पर अब वह लूट आजादी को ओर लोकतंत्र हो रही हैं सन् 2008\-09 ओैर सन् 2009\-10 के केन्दीय वार्षिक वजहो में पूजीवादियों को पांच लाख करोड रूप्ये का सरकारी इनाम मिला हे। प्रतिदिन सात सौ करोड। इस वर्ग को जा भारी मुनाफे मिल रहे है, सो अलग जिनका नतीजा सामने आसमान तक पहूॅची महगाई है।
आचार्य नरेन्द्र वर्ग संघर्ष को अनिवार्य मानते थें। अल्बत्ता वे चहते थे कि आज के अत्यंत अचानक बनते जा रहे शास्त्रो के युग में उसे शांति पूर्ण तरीको से ही चलाया जा सकता है डॉ भीमराव अम्बेडकर उस में जिनको दलितो के सदियों से चली आ रही शोषित श्रीणी के खिलाफ शांतिपूर्ण विद्रोह का संदेष दे गये। डॉ लोहिया ने उसे सिविल नाफरमानी का नाम दिया। जे पी ने का था '' मानेंगे नही, मानेंगे नही।'' हर एक स्थानीय आंदोलन बुनियादी बदलाव का आन्दोलन हैं जिस की मांग आज की सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक चुनौतियॉ करती ह। एक और स्थानीय अन्यायों को व्यापक रूप देने से उभर सकता है। तो दूसरी ओर बदलाव के आंकाक्षी तत्वों को देषव्यापी वर्ग संघर्ष मंे रखना जरूरी हैं, क्योकि वह एक सच्चाई है जहॉ भी पुजीवाद पखना पडा है उसने किसानो को लूट कर ही पूॅजी इक्ठठी की हैं जमीनों पर कब्जें दिये है। और किसानो को मजदूर बनाया हैं विस्थापन उसका एक अस्त्र है कि भारत कृषि प्रधान देष ना रहंे, औद्योगिक बने जो भारी बेरोजगारी पैदा करके मजदूरो को कम से कम वेतन पर काम करने को मजबूर करें।
यूरोप में यह प्रक्रिया देढ सौ वर्ष चली जब की वहॉ का पुजीपति वर्ग भारत जैसे गुलाम देषो को लूट कर ही फूला फला। इस के बाद जब उपनिवेसवाद खत्म हो रहा था। और मजदूर वर्ग संगठित हो गयष था तो यूरोप में कल्याण राज्य बने । भारत की शोषित वर्ग को तो वैसी बुनियादी लूट से जूझना है। इस का अर्थ था कि सतत संघर्ष । जनता ने समाजवादियां और कम्युनिष्ठो के बिच संघर्षो को सनृ 1960\-65 तक देखा था। वे संघन सघर्ष होते थें। ओर जनता की चेतना को झोडते थेैं। उसे राजनितिक तौर पर षिक्षित करते थे। अब दली राजनीति के घोर अवसरवाद से अब कर निर्दल संगठन आंदोलनो का संचालन करते है। उन की समझ सही है, किन्तु पूरी नही। दलदीनता रहैं पर दिषाहीनता और लक्ष्य हीनता न हो ।
यात्रा से प्रेरणा लेने वाले युवजन जनता में इन बातों को रखे। पूजीवादी शोषण को सही रूप बताएॅ। जनता की दैनंदिन मुष्किलों में उस शोषण का चेहरा सामने लाना चाहिये।इसके लिए उन क्षेत्रो को चुनना चाहिये जहॉ सघन कार्य हो सके। जाति व्यवस्था और वर्ग का जो संबन्ध लोहिया ने बताया है, उस का उल्लेख भी करें। डॉ लोहिया के विषेष अवसर के सिद्धांत के पचार वर्ष बाद यह स्पष्ट हो जाना चाहिए कि उस का लक्ष्य जाति तोडो थ। अब जाति जोडो बन गया और नेता पिछडी व दलित जातियों के नेता पुजीवादी व्यवस्था में अपने व अपने परिवारों के स्वार्थ ही पुरे करते है। वे वर्ग व्यवस्था के अंग बनते जाते हैं
हॉलाकि अभी तक जाति की उंचनीच के अन्याय घट नही है। भाषा के प्रष्न के उपनिवेषवादी पूजीवादी आयाम को डॉ लोहिया ने सामने लाया था। उस पर बल देना आज की बहूत बउी जरूरत है। यात्रा के दौरान इस सवाल को प्रभावी रूप् से उठाया गया था।
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