देहरादून पहुंचने पर पता चला कि आजतक इसकी खूबसूरती के जो किस्से सुने थे सब झुठ थे क्योंकी ये उन किस्सो से कई ज़्यादा खूबसूरत था, 3-4 दिन होटल में रहने के बाद थोड़ी मेहनत और स्थानीय लोगो की मदद से राजपुर रोड के पास ही एक कमरा किराए पर मिल गया, वहाँ से एक क्लॉक टावर भी दिखता है जो लगभग पूरा दिन पर्यटकों से घिरा रहता है, उस रात जब में उस खूबसूरती को दिल में लिए सो रहा था, वापस उठा तो देखा अवनि आई हुई थी, मैं उसे देख के थोड़ा हैरान हुआ, और खुश भी, मैं उसकी तरफ बढ़ा और जैसे ही गले लगाने वाला था वह पीछे हो गयी!
क्यूँ?
क्यूँ तुम हमे छोड़ आए, मुझे छोड़ आए? उसने सवाल किया।
अवनि, मैने तुम्हे नहीं छोड़ा मैं तो यहाँ...
बिजली की तेज आवाज ने मुझे जगा दिया, पास ही में कही बिजली गिरी थी, तेज़ बारिश और हवा चल रही थी, मैने अपना फ़ोन अनलॉक किया,
2 बज रहे थे रात के, वहाँ अवनि का कोई नामों निशान नहीं था। मैने एक गहरी आह भरी और गरजती बिजली और बारिश की आवाज के बीच सोने की कोशिश करने लगा।
सुबह नींद खुली तो देखा, 8 बज चुके थे, पर बारिश की आवाज अब भी थी, बाहर देखा तो पता चला कि मौसम ठीक वैसा ही है जैसा रात को था। बारिश और बिजली वैसे ही थे, मैं बारिश को देख रहा था तभी एक बच्चा रेनकोट पहने पास आया और बोला-भैया कही जाना है तो रेनकोट पहनो और चले जाओ, ये बारिश अब यूँही चलेगी, रुकने का इंतज़ार मत करो।
मैंने हैरानी से उसकी ओर देखा और मुस्कुरा दिया।
मेरे पास रेनकोट नहीं था, मैं थोड़ा मायुस हुआ, तो पड़ोस के ही अंकल बोले–"बेटा, मै ले आउ ?"
क्या अंकल?-मैंने उन्हें गुरते हुए से पूछा
"रेनकोट" -उन्होंने मुस्कुरा के बताया।
मैंने उनका धन्यवाद किया और ये कहते हुए मना कर दिया कि मेरे पास छाता है, मैं जाके ले आऊंगा।
मुझे थोड़ा अजीब लगा क्योंकि मेने तो उनसे इस बारे में कोई बात नहीं की पर खुशी भी हुई कि मुझे अच्छे पड़ोसी मिले।
मै छाता लेकर बाहर निकला रेनकोट के लिए पर रास्ते में लाइब्रेरी देख के रेनकोट खरीदना टाल दिया और लाईब्रेरी में चला गया, मेने एक नॉवेल ली, वैम्पायर्स की,
और उस नॉवेल से जो मुझे पता चला...वो मेरे लिए किसी बड़ी सफलता जैसा था। पर नॉवेल, कहानियों की सच्चाई किसी अंधेरी जगह-सी होती है, आपको पता तो है कि आगे कोई जगह तो है पर कितनी दूर तक है और कैसी है, ये अंदाजा मुश्किल है।
उस नावेल में दो पुराने समुदायों के बारे में लिखा था, उनके नाम थे रायसी और नराही, उनके नाम के साथ एक चिन्ह भी था, शायद उनके वंश चिन्ह।
मुझे वह कुछ देखे-देखे से लगे, रायसी का चिन्ह था एक वृत्त के बीच में एक आँख और आँख के बीच में हिरा, नराही का वंश चिन्ह था एक वृत्त के बीच में आग से सुलगता हुआ डायमंड।
याद आया ये चिन्ह मेने एक ऑनलाइन वैम्पायर डॉक्यूमेंट्री में देखे थे, उसमे बताया था कि पहले वाला चिन्ह "ऐडान वंश" का है, ऐडान वैम्पायर सहायक होते है जो आमतौर पर किसी वैम्पायर कबीले के मुखिया होते है और दूसरा चिन्ह "फिदोन वंश" का है, फिदोन बेहद ख़तरनाक माने जाते है, वह खुद को वैम्पायर्स के रक्षक भी कहते है।
तो क्या इसका मतलब ये है कि रायसी "ऐडान वंश" का ही हिस्सा है और नराही "फिदोन वंश" का?
मैने इन समुदायों के बारे में और जानने की कोशिश की पर इस किताब में इनकी इतनी ही जानकारी थी,
मेने काफी देर लाईब्रेरी का चप्पा-चप्पा छान मारा पर मुझे कुछ हासिल ना हुआ, मैं निराशा से एक कुर्सी पर बैठ गया। एकदम से अँधेरा हो गया, शायद तेज़ बारिश की वजह से लाइट चली गयी, जनरेटर शुरू किए गए पर किसी वजह से वह भी नहीं चल रहे थे,
अरे! ... शायद किसी ने मेरे पाँव पर पैर रख दिया।
मेने आस पास नजर गुमाई
मैं कुछ सोचता या समझता उस से पहले ही मुझे उस आदमी की परछाई जाती दिखी जो तेज़ी से ओझल हो गयी।
मेने पीछा करने के इरादे से कुछ कदम पाँव बढ़ाए ही थे कि लाइट आ गयी। पर ये मेरे किसी काम की नहीं थी, मैं तो पहले ही पूरी लाइब्रेरी देख चुका था, मैने फिर से मेज पर पड़ी उस वैम्पायर नॉवेल पर नज़र डाली, पर वहाँ तो कोई और किताब थी, जिस पर वहीं दो चिन्ह थे, नाम लिखा था "ऐडान और फिदोन का अनकहा इतिहास"।
मुझे फिर से हैरानी और खुशी दोनो हुई, जब से मैं देहरादून आया हूँ, खुशी के साथ हैरानी भी एक हिस्सा बन चुकी है, मेने अपना छाता और किताब ली बाहर की और कदम बढ़ाए, बारिश अब भी चल रही थी और मुझे नहीं लगता कि मेरा छाता इस तेज़ हवा को झेल पाएगा, में खुद पर गुस्सा हो रहा था कि मैने पहले रेनकोट क्यूँ नहीं लिया।
मेने हारकर यूँ ही चलने का फैसला किया, पानी काफी बढ़ चुका था और जैसा मेने अंदाजा लगाया था, मेरा छाता इस हवा को झेल नहीं पाया, मैं पूरा भीग चुका था, एक-एक कदम उठाना भी अब काफी मुश्किल लग रहा था। मैं लगभग 1 किलोमीटर पैदल ही चला पर रूम अब भी बहुत दूर था, अँधेरा भी बढ़ता ही जा रहा था।
मेने वही एक धर्मशाला देखी और रात वही रुक गया। वह जगह बहुत ही साफ थी, हाँ मुख्य दरवाजे के पास थोड़ा कीचड़ ज़रूर था जो हम जैसे लोग अपने साथ ले आए थे।
मुझे भुख भी लग रही थी बड़ी जोर की, ऐसा नहीं थी कि मेरे पास पैसे नहीं, पर इस बारिश में बाहर कहाँ जाता, मैने सुना था कि कुछ धर्मशाला में खाना भी बनता है, मेने पता किया और मेरी किश्मत अच्छी थी, ये जगह भी उन्ही कुछ में से थी। दाल-चावल बने थे, मेने पेट भरकर खाने के बाद सोचा कि वह किताब पढू, पर मैं काफी थक चुका था, औऱ मैं बस सोना चाहता था, तो मैंने ऐसा ही किया।
ध्रुव की, अवनि की बहुत याद आती है मुझे, पता नहीं वह सब मेरे बारे में क्या सोचते होंगे, ख़ैर इन्ही सारी बातों के साथ मैं सो गया।
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