दो दिल, एक हंगामा
लखनऊ का पुराना मोहल्ला। सुबह की हवा में पराठों की खुशबू, चाय की दुकानों की भाप और सब्ज़ीवालों की आवाज़ें गूँज रही थीं। वहीँ एक कोने में खड़ा बड़ा-सा हवेली जैसा घर—आरव का।
आँगन में दादीजी चौकी पर बैठी थीं। एक हाथ में रामायण, दूसरे हाथ में चश्मा। माथे पर बड़ी सी लाल बिंदी और आँखों में वही पुराना अनुशासन।
दादीजी (गुस्से में बुदबुदाते हुए):
“आजकल के बच्चे भी न… सुबह 8 बजने वाले हैं और अभी तक कोई ढंग से उठा नहीं। हमारे जमाने में तो सूरज से पहले उठकर खेतों में काम शुरू हो जाता था। अब तो उठते ही मोबाइल चाहिए।”
पास ही चाचाजी अखबार पढ़ते हुए हँस पड़े।
चाचाजी: “माँ, छोड़ो भी। अब जमाना बदल गया है। बच्चे भले देर से उठें, पर अपने-अपने तरीके से खूब आगे बढ़ रहे हैं।”
तभी अचानक ऊपर वाली छत से जोरदार आवाज़ आई—
काव्या (चिल्लाते हुए):
“आरव! तूने फिर मेरी पतंग क्यों काटी? कितनी बार कहा है, अपनी पतंग उड़ा, मेरी पतंग को मत छेड़। देख लेना, इस बार मोहल्ले के सारे बच्चों को तेरे खिलाफ खड़ा कर दूँगी!”
सारे घरवाले हक्के-बक्के छत की ओर देखने लगे।
नीचे के कमरे से खिड़की खोली गई। वहाँ खड़ा था आरव—बिखरे बाल, हाथ में टूथब्रश और चेहरे पर आधी नींद वाली मुस्कान।
आरव (नींद में लेकिन शरारत भरे अंदाज़ में):
“अरे मैडम, आपकी पतंग खुद ही कट गई थी। हवा तेज़ थी। अब इसमें मेरी क्या गलती? वैसे भी, पतंग उड़ाने का शौक सबको होता है, लेकिन उड़ाना सबको नहीं आता।”
काव्या का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया। उसने बिना सोचे समझे बाल्टी में पानी भरा और छत से सीधा नीचे खड़े आरव पर छपाक से उड़ेल दिया।
आरव (भीगकर चिल्लाते हुए):
“काव्या! तेरी कसम, आज तो तुझे छोड़ूँगा नहीं। बाल्टी के बाल्टी खाली कर दी तूने?”
नीचे खड़े पूरे परिवार की हँसी छूट गई।
मम्मी (सिर पकड़ते हुए): “हे भगवान! रोज़ सुबह का ये तमाशा कब खत्म होगा? एक दिन ये दोनों पूरे मोहल्ले की नाक कटवा देंगे।”
चाचाजी: “अरे भाभी, चिंता मत करो। ये दोनों सुधरेंगे नहीं। और सच कहूँ तो इनकी लड़ाई ही घर की असली सुबह की चाय है।”
बच्चे तालियाँ बजाकर “और पानी डालो! और पानी डालो!” चिल्लाने लगे। पड़ोस की औरतें भी अपनी खिड़कियों से झाँककर मज़ा लेने लगीं।
आरव गुस्से में टूथब्रश फेंककर ऊपर की ओर भागा। लेकिन जैसे ही काव्या ने उसे आते देखा, उसने जीभ निकाली, जोर से हँसी और दरवाज़ा अंदर से बंद कर लिया।
आरव बाहर खड़ा गुस्से में दरवाज़ा पीट रहा था।
आरव: “दरवाज़ा खोल काव्या! वरना इस बार तेरे सारे कर्ली बाल काट दूँगा।”
काव्या (अंदर से): “तो पहले बाल्टी का बदला चुका!”
नीचे दादीजी सबकुछ देखकर रहस्यमयी मुस्कान के साथ बोलीं:
दादीजी: “लड़ाई करने वाले ही सबसे अच्छे साथी बनते हैं। ये दोनों अभी नहीं जानते, पर वक्त आने पर खुद समझ जाएँगे।”
घरवाले हँसी में डूबे थे, पर आरव और काव्या के दिलों में हलचल अलग ही थी। उनके लिए ये रोज़ का हंगामा अब आदत बन चुका था। आरव को गुस्सा भी आता, पर काव्या की वो शरारती मुस्कान उसे बेचैन कर देती। और काव्या, भले ही उसे चिढ़ाती रहती, लेकिन दिन की शुरुआत उसके बिना अधूरी लगती।
शायद यही नोक-झोंक वाला रिश्ता आगे चलकर उनके दिलों की असली कहानी बनने वाला था।
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