डलहौजी डार्कनेस

डलहौजी डार्कनेस

चैप्टर १

इंडिया, एक ऐसी कंट्री है, जहां कई अनसुनी और अनकही बातें होती है। कुछ ऐसी जो कभी किसी ने न देखी होंगी और कुछ अनजानी सी। कहते तो हैं कई लोग की पिशाच, व्रिक और डाकिनी जैसी कोई चीज नहीं होती। पर आज भी ये सब हमारे बीच सांस ले रहें हैं।

नहीं ये सब चीजें सिर्फ वेस्टर्न लोगों की कहानियां नही हैं पर हकीकत हैं। कई पुराने शहर जो सदियों पुराने हैं, वो सब आज भी इन सब चीजों के गवाह हैं। कई पैरानॉर्मल रिसर्चर्स और इतिहासकार ये जानने में लगे हैं की इन सब चीजों का वजूद है या नही? और अगर है, तो ये सब आएं कहां से? आपका क्या मानना है?

आज २०२२ का नया साल है, पर ये कहानी वैसे तो सदियों पुरानी है पर इसका पहला चैप्टर लिखा गया २०१४ में जब माया अपने परिवार के साथ डलहौजी शिफ्ट हुई।

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एक बर्फीली शाम थी और एक खाली रोड पर एक लाल रंग की गाड़ी सर.... सर.... करके भाग रही थी। गाड़ी मे पांच लोग बैठे थे। जिनमें ड्राइविंग सीट पर करीबन ४२ साल के एक आदमी थे। उनकी दाई तरफ एक ४० वर्षीय औरत और पैसेंजर सीट पर तीन बच्चे, एक लड़का और दो लड़कियां। ड्राइविंग सीट पर जो बैठे थे उनका नाम दुष्यंत सिंह है। वो २५ साल बाद अपने शहर डलहौजी जा रहें हैं। एक ज़मीन खरीदी है, जो टिंबर प्रोजेक्ट के लिए यूज होगी। दाई ओर उनकी पत्नी, वसुधा, एकेडमिक सेक्टर में काफी समय से काम कर रहीं हैं। यहीं डलहौजी के एक स्कूल में जॉब करने का प्लान बनाकर दिल्ली से पति के साथ उनके शहर जा रही हैं।

साथ मे दो बेटियां है, माया और अनिका। उन्ही के साथ पीछे पैसेंजर सीट पर घर का सबसे छोटा सदस्य और दुष्यंत का बेटा आरुष भी बैठा है। आरुष को देख कर पता चल रहा था कि वो काफी खुश है क्योंकि फैमिली साथ में हिल स्टेशन जा रही है।

जहां आरुष खुश है, वहीं माया शांत है और थोड़ी दुखी भी, वहीं अनिका को देख कर ऐसा लगता है जैसे कुछ अलग हुआ ही नहीं। माया उदास इसलिए है क्योंकि अपनी पूरी लाइफ दिल्ली में बिताने के बाद अब एक नए और अनजान शहर में जाना पड़ रहा है। सारे जानने वाले, सारे दोस्त और सारी यादें वहीं दिल्ली मे छूट गईं। और अब क्योंकि उसके पापा का काम यहीं होगा तो शायद वापस जाना कभी हो भी न।

एक ही बात की खुशी है, माया को, के साथ में अपना कैमरा ले आई है। रास्ते भर अपना मूड हल्का करने के लिए वीडियो रिकॉर्ड करी और कई सारी फोटोज भी खींची।

अनिका, वहीं दूसरी तरफ, हमेशा की तरह एक नॉवेल हाथ में रख कर पढ़ रही थी। ऐसा समझो की सारा ध्यान उसी में हो। आरुष बर्फ को देख कर एक्साइटेड था। वो इंतजार नहीं कर पा रहा था की कब नए घर मे जाना होगा।

शांत माहौल में अचानक से रौनक आई जब वसुधा के मोबाइल पर कुछ नोटिफिकेशंस आए। मोबाइल ऑन करा तो चार खुशखबरी एक साथ। वसुधा ने जिस स्कूल मे एस ए टीचर अप्लाई किया था उस स्कूल ने उसकी एप्लीकेशन अप्रूव कर ली और आरुष का उसी स्कूल में एडमिशन हो गया। दूसरी खुशखबरियां कि ईस्टर्न ग्रूव हाई नाम के कॉलेज में माया और अनिका को स्कॉलरशिप मिली। माया को फाईन आर्ट्स की क्लास में और अनिका को अकाउंट्स की क्लास में।

सब ये खबर सुन कर काफ़ी खुश हुए। माया भी कुछ पल अपनी परेशानी को भुला कर ये सोचने लगी थी कि नया कॉलेज कैसा होगा? कौनसे लोग मिलेंगे? क्या कोई नए दोस्त बनेंगे? क्या कुछ मिस्टीरियस पता चलेगा?

अनिका भी मन में सोचती है की कॉलेज में क्या लाइब्रेरी होगी? और कौनसी नई बुक्स पढ़ने को मिलेंगी?

यही सब सोचते-सोचते एक दम से गाड़ी रुकती है। सब अपनी-अपनी सोच से बाहर आते हैं और देखते हैं की आखिर नया घर आ गया।

उतर कर सब एक दूसरे को घबराहट और हल्की खुशी वाली नज़रों से देखते हैं। गाड़ी पार्क करके दुष्यंत फाइनली दरवाजा खोलते हैं और नया घर जो उनके लिए तो उनका पुराना ही घर था, सबको दिखाते हैं।

दुष्यंत- तो मेरी प्यारी फैमिली कैसा लगा नया घर?

घर दुष्यंत ऑलरेडी एक हफ्ते पहले आकर साफ करा चुके थे और सामान भी सब नया जैसा ही लग रहा था। उसे देख कर वसुधा बोलती हैं।

वसुधा- यार क्या दुष्यंत तुम तो बड़े छुपे रुस्तम हो, बताया क्यों नहीं पहले इतना बड़ा और आलीशान बांग्ला है तुम्हारा यहां पर?

माया और आरुष (एक साथ)- व्हाट पापा दिस इज़ नॉट डन!

अनिका वैसे ही चुप रहती है जैसे उसे कुछ अलग लगा ही न हो।

दुष्यंत सबको शांत करा कर बोलता है।

दुष्यंत- अच्छा, अच्छा सुनो, काफ़ी लंबा सफ़र था सब थके हुए हैं। सबको अब आराम करना चाहिए।

उतने में ही एक बुज़ुर्ग दरवाजा खटखटाते हैं और दरवाजा खोल कर बोलते हैं।

बुज़ुर्ग को देख कर दुष्यंत काफ़ी खुश हो जाते हैं। बुज़ुर्ग भी दुष्यंत की ओर देख कर भावुक हो जाते हैं और कहते हैं।

काका- अरे मालिक आप आ गए? २५ बरस हो गए देखे हुए। आपके ही इंतजार में था कि कब आप वापस आयेंगे।

दुष्यंत भी उनको प्रणाम करके कहते हैं।

दुष्यंत- क्या काका आप भी? अरे, आप पहले सबसे मिलिए तो। ये मेरी पत्नी है, वसुधा। ये दोनों बच्चियां, माया और अनिका और वो है मेरा बेटा, आरुष।

काका- अरे बबुआ काहे इस गरीब को इतनी इज्जत देते हो? हम नौकर हैं और आप मालिक।

दुष्यंत- नहीं काका आप बड़े हैं और पिताजी के जाने के बाद आप ही ने तो घर की देखभाल करी है। अच्छा छोड़िए ये सब, ये बताइए घर पर सब ठीक?

काका- हां बिटुआ अब हम ही रहते हैं घर में। बेटा-बहु तो बंबई चले गए काम के सिलसिले में। अब तो हम दादा भी बन गए हैं।

दुष्यंत- मुबारक हो। आपने सबके कमरे तैयार करा दिए न काका?

काका- हां बबुआ। आपका और बहुरानी का कमरा वहीं आपके ही पुराने कमरे में है। माया बिटिया का कमरा दूसरे मंजिल पर बाईं ओर है और अनिका बिटिया का दाईं ओर। आरुष बेटा का कमरा उन दोनों कमरों के बीच में।

दुष्यंत- अच्छा काका ठीक है। रात के १० बज रहे हैं और आपको तो पता ही है कि डलहौजी में रात का कोहरा जानलेवा हो सकता है। आराम से जाइयेगा।

काका- हां बबुआ राधेकृष्णा।

दुष्यंत- राधेकृष्णा काका।

काका वहां से चले जाते हैं।

दुष्यंत- चलो सब, रात बहुत हो गई है। काका ने बताया ना कि किसका कमरा कहां है। चलो सब सो जाओ।

ये सब बातें हुई ही थी कि सब अपने कमरे में सोने चले जाते हैं। पर माया, एक तो दिल्ली की यादों से परेशान थी ही और दूसरी ओर दुष्यंत की बात ने उसकी नींद भी उड़ा दी थी। आखिर वो सोती कैसे?

माया मन ही मन सोच रही थी कि दुष्यंत ने काका से वो बात क्यों कही? सोचते-सोचते कब १२ बज गए उसे पता ही नहीं चला। एक तो ठंड ऊपर से डलहौजी के रात का कोहरा। माया के मन में अलग-अलग विचार आ रहें थें। लेकिन सोना ज़रूरी था क्योंकि अगले दिन सभी को डलहौजी घूमने भी जाना था। तो माया ये सब सोचते-सोचते सो गई।

ट्रिंग..... ट्रिंग..... अलार्म बजने की आवाज़ से फाइनली माया उठी और देखा सब उसके ही कमरे में थे।

वसुधा- तो अब उठ ही गई मेरी स्लीपिंग ब्यूटी? बच्चा ९ बज रहें हैं। रात को नींद नहीं आई?

दुष्यंत- अरे वसुधा! बस करो। मत चिढ़ाओ उसे। मुझे पता है कि नया शहर है। एडजस्ट होने में थोड़ा टाइम तो लगेगा। गुड मॉर्निंग बेटा।

आरुष- देखो माया दी आपका कूल भाई लेट लतीफ़ आज आपसे भी पहले उठ गया।

अनिका- घूमने चलना है या मैं जाऊं अपनी बुक रीड करने?

सब एक साथ- ओफो! देवी मां चल रहें हैं।

माया- मुझे १० मिनट दो मैं आती हूं तैयार होकर।

माया वैसे ही लेट हो चुकी थी। जल्दबाजी में तैयार हुई और नीचे पहुंची। कैमरा तो लिया पर एक्स्ट्रा बैटरीज ले जाना भूल गई।

दुष्यंत खुश थें कि फाइनली सब खुश हैं और अपने शहर डलहौजी में वापस आ गए हैं। मन ही मन में उम्मीद कर रहें हैं की बस वो टिंबर प्रोजेक्ट वाली लैंड अप्रूव हो जाए।

दूसरी ओर अपनी फैमिली के साथ फाइनली इतने दिनों बाद घूमने का मौका मिला था उन्हें। दुष्यंत ने अपने शहर की सारी फेमस टूरिस्ट डेस्टिनेशन फैमिली के साथ घूमी।

पहले वो लोग सेंट० जोन्स चर्च गए, फिर गरम सड़क पर वॉक करी, कालातोप वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी घूम कर दोपहर में गंजी पहाड़ी जाने ही वाले थे के तभी दुष्यंत को एक कॉल आई जिसे सुनकर वो बहुत खुश हुए। अचानक से, उन्हें वापिस जाना होगा, वो मीटिंग अटेंड करने। उन्होंने सब को बताया। पर माया, आरुष और वसुधा को काफ़ी मन था सीनिक ब्यूटी देखने का। तो उन्होंने जाने से इंकार कर दिया।

दुष्यंत दुविधा में थे कि क्या करें? क्योंकि वो मीटिंग भी इंपोर्टेंट थी और फैमिली के साथ ये ट्रिप भी। जाने की सोचने ही वाले थे कि माया के कैमरा की बैटरी लो हो गई और न चाहते हुए भी सबको वापस जाना पड़ा।

घर पहुंच कर सब अपने कमरे में चले गए। अनिका हमेशा की तरह एक मोटी किताब पढ़ने लगी। आरुष थक गया था तो अपने कमरे में जाकर सो गया। वसुधा लंच की तैयारी करने लगी। माया अपने कमरे में जाकर मोबाइल पर सर्च करने लगी की आस-पास कुछ पेंटिंग या फोटोग्राफी से रिलेटेड कोई दुकान थी या नहीं। सर्च करते हुए उसकी नज़र मॉल रोड पर ही एक कैमरा की शॉप पर गई। शॉप का नाम 'गोयल्स फोटो स्टूडियो' था। हालांकि, माया अब १९ साल की हो गई थी पर वो गाड़ी नहीं चला सकती थी। तो आते ही तीनों बच्चों के लिए दुष्यंत ने साइकिल का इंतजाम कर दिया था।

माया को वैसे भी अपने कैमरा के लिए नया लैंस लेने जाना था। तो झट से किचन में काम करती वसुधा के पास जाकर पप्पी फेस बना लिया।

वसुधा- ओय बदमाश! ऐसी शक्ल क्यों बना रखी है?

माया- मां! सुनो ना।

वसुधा- हां सुन तो रही हूं। क्या चाहिए बता?

माया- बस छोटा सा... टीनी टाइनी... फेवर... परमिशन चाहिए।

वसुधा- कौनसी परमिशन?

माया- वो न! आपको तो पता ही है मेरा सबसे प्यारा दोस्त मरा पड़ा है।

वसुधा- हाय... पागल किसके बारे में बात कर रही है?

माया (कैमरा हाथ में लेते हुए)- अरे ये मां! चार्ली।

वसुधा- अरे पागल कैमरा का ऐसा नाम कोई रखता है भला? और हां क्या हुआ है इसे?

माया- मां आप चार्ली के बारे में कुछ मत कहो। इसकी बैटरी खत्म हो गई है और यू नो मैंने इससे आने से पहले प्रोमिस किया था कि नया लेंस दिलवाऊंगी। वो न यहां पास में मॉल रोड पर ही एक कैमरा की दुकान है। जाने दो ना प्लीज़।

वसुधा- पागल हो गई है माया? बेटा नया शहर है। रास्ते भी नहीं पता अभी तो ढंग से। कल ही तो आए हैं। तू खो गई तो? और मैं जाने भी दूँ तो जायेगी कैसे?

माया- मां प्लीज़ न। पापा ने साइकिल तो दे ही दी है। मैं नहीं खाऊंगी पक्का और डिनर तक वापस भी आ जाऊंगी। प्लीज़ न मां। प्लीज़... प्लीज़... प्लीज़... चार्ली ही तो आखिरी दोस्त बचा है मेरा।

ये कहकर माया शांत हो जाती है और फिर उदास सी हो जाती है। ये देख कर वसुधा भी भावुक हो जाती है। आखिर मां तो मां है।

वसुधा- अच्छा चल चली जा। फोन साथ ही रखियो और अनजान लोगों से ज़रा दूर रहियो। डिनर तक आ जाइयो।

वसुधा को गले लगाकर माया कहती है।

माया- थैंक यू... थैंक यू... थैंक यू.... मां यू आर दी बेस्ट। हां डिनर तक आ जाऊंगी।

वसुधा- अच्छा रुक।

माया- अब क्या मां?

वसुधा- ओय हीरोइन! ये ले कुछ पैसे रख ले। खा लियो कुछ।

माया- लव यू मां।

ये कहकर माया अपनी साइकिल उठाकर रास्ता पूछते-पूछते किसी तरह मॉल रोड तक पहुंच जाती है। सबसे पहले रुककर पानी पीती है और फिर नज़र घुमाती है मॉल रोड की चहल-पहल पर। चारों तरफ लोग, रंगबिरंगी मॉल रोड और लोग हर चीज़ चाव से खरीदते हुए। वहीं कोने में उसे सबसे पहले एक आइसक्रीम की दुकान दिखती है। वो रुककर वहीं से आइसक्रीम ले लेती है। आइस्क्रीम खाते हुए माया कैमरा की दुकान ढूंढने लगती है।

माया (अपने आप से)- अरे यार एड्रेस तो यहीं का है, ये दुकान आखिर हैं कहां? लो अब तो ये आइसक्रीम भी खत्म हो गई, पर ये दुकान नहीं मिली।

तभी उसकी नजर एक पुरानी सी दुकान पर जाती है। देखने में तो दुकान विंटेज लग रही थी। ग्लास की बड़ी खिड़कियों के अंदर शोकेस में ऐसे कैमरा रखें हुएं थें जो उसने कभी नहीं देखे थे। वो सब भी विंटेज ही लग रहे थे। शॉप के दरवाजे को ध्यान से देखा तो उसपर ओपन ही लिखा था।

तो माया जल्दी से अन्दर चली जाती है। अंदर जाकर देखती है तो उसे कोई नज़र नहीं आता। एक दम से शॉप की सारी लाइटें बुझ जाती हैं। सामने देखती है तो दो बड़ी-बड़ी आंखें उसे घूर रहीं होती हैं। वो आंखें ऐसी लग रहीं थीं मानो पीले रंग की हों और चमक रहीं हों।

ये देख कर माया घबरा जाती है और वापस भागने के लिए मुड़ती है तो किसी से टकरा जाती है। उतने में लाइटें फिर जल जाती हैं।

आंखें खोलती है तो देखती है की एक हैंडसम सा लड़का सामने खड़ा है। करीबन हाइट में ६ फीट का तो होगा ही। शक्ल देख कर थोड़ा ब्लश तो करती है पर फिर अभी जो हुआ वो याद करके घबरा जाती है। वो लड़का जाने ही वाला होता है कि माया पीछे से बुलाकर उसे रोकती है।

माया- ओ मिस्टर! कस्टमर आया है। कुछ लेना है मुझे।

लड़का- मैडम फर्स्ट ऑफ़ ऑल मेरा नाम विक्रांत है और सेकंड ऑफ़ ऑल आपको बाहर साइन नही दिखा की अभी लंच ब्रेक चल रहा है। तो नो कस्टमर्स अलाउड।

माया- अरे यार कैसी बात कर रहे हो? साइन देख कर ही तो अंदर आई हूं। लंच कर तो नहीं रहे तुम। मुझे चार्ली के लिए बैटरी और उसका लेंस खरीदना है। सो, विल यू प्लीज़ डू दी ऑनर्स?

विक्रांत- मैडम, कहा न आपसे अभी लंच ब्रेक चल रहा है। आप एक घंटे बाद आइएगा अपने चार्ली को लेकर।

माया- ओह हैलो, पहली बात माया नाम है। दूसरी बात जब साइन ओपन का लगा है और आप लंच कर नहीं रहें हो तो जो मुझे चाहिए वो देने में क्या प्रॉब्लम है?

ये सब नोकझोक चल ही रही होती है की खाना खा कर शॉप के मालिक, विक्रांत के पापा, अरुण, वहीं आ जाते हैं अंदर से।

अरुण- विक्रांत ये सब क्या चल रहा है?

विक्रांत- पापा कुछ नहीं, ये कस्टमर लंच के टाइम पर अंदर आ गई है। मैं कह रहा हूं एक घंटे बाद आने को, पर सुन ही नही रही।

अरुण- तुझे कितनी बार समझाया है कि कस्टमर इस गॉड एंड गॉड इस ग्रेट। आप मुझे बताइए बेटाजी क्या चाहिए आपको?

माया- अंकल आपको डिस्टर्ब करा हो तो सॉरी। मैं तो बस चार्ली के लिए लेंस और बैटरी खरीदने आई थी। पर कुछ लोगों को बात समझ में ही नही आ रही।

अरुण- अरे आप इस बंदर की बातों पर ध्यान न दो बेटाजी ये ऐसा ही है। वैसे ये चार्ली है कौन?

माया- अरे अंकल आप भी। मेरे कैमरा का नाम है चार्ली।

अरुण- ओय होय होय बेटा जी। आपने तो दिल खुश कर दिया। ये लीजिए आपके चार्ली के लिए बैटरी और लेंस ये बंदर दिखा ही देगा।

विक्रांत- पापा! यार कस्टमर्स के सामने तो बंदर मत बुलाओ।

अरुण- अब बंदर को बंदर नही कहूं तो क्या कहूं?

ये सुनकर माया हंसने लगती है और विक्रांत को गुस्सा आ जाता है। अरुण उसे आंखें दिखा कर शांत करा देता है और अजीब बात ये थी की वो हो भी जाता है। ये देखकर माया को थोड़ा डाउट होता है पर वो ज्यादा ध्यान नहीं देती। माया तो सिर्फ दो ही चीजों के बारे में सोच रही थी एक तो की चार्ली के लिए लेंस कौनसा खरीदना है? और दूसरी की वो जो आंखें उसने देखीं थीं क्या वो असली थीं?

विक्रांत माया को साथ में लेजाकर एक कमरे के बाहर खड़ा कर देता है। अंदर जाकर फिर दो तीन अलग अलग लेंस निकाल लाता है।

विक्रांत- ये लो! कौनसा चाहिए?

माया- ओय हीरो! डोंट बी सो रूड। बाहर तो बड़ी भीगी बिल्ली बन गए थे।

विक्रांत- ओए, आई एम नॉट ए भीगी बिल्ली।

माया(हंसकर)- या राइट।

विक्रांत- यार दिक्कत क्या है तुम्हारी? सामान लो और निकलो यहां से।

माया- अरे अरे तुम तो सीरियस हो गए। अच्छा, मुझे तीसरा वाला लेंस देदो, फिर आई विल बी ऑन माय वे।

विक्रांत माया को लेंस देता है। माया काउंटर पर जाती है तो देखती है की अरुण वहां पर नहीं थें। पर वहां उसकी मां की उम्र की एक लेडी थीं। वो उसे देख कर स्माइल कर रही थीं।

लेडी- अरे बेटा गुड चॉइस। यहां डलहौजी में हमारी ही शॉप बहुत सालों से ये समान बेच रही है। एक दम फर्स्ट क्लास क्वालिटी का है सब यहां और कभी भी कुछ विंटेज लेने का मन हो तो वापस जरूर आना।

उतने में विक्रांत अंदर से बाहर आता है और उस लेडी को देखकर उनके पैर छूता है। इस बात से ये पता चलता है कि वो लेडी उससे उम्र में बड़ी थीं और आउट ऑफ रिस्पेक्ट वो उनके पैर छू रहा था।

विक्रांत- अरे मां! आप कब आई?

वो लेडी और कोई नही विक्रांत की मां, रश्मि थी।

रश्मि- अभी अभी। तेरे पापा को किसी अर्जेंट काम से बाहर जाना पड़ा तो कॉल करके बुला लिया। और तू ये बता, नालायक, क्यों परेशान करता रहता है कस्टमर्स को?

विक्रांत- अरे मां यार आप भी स्टार्ट मत हो पापा की तरह। मैंने तो जो कहा ठीक कहा। अब जब साइन पर लिखा है आउट फ़ॉर लंच तो किसी को अंदर आना ही नहीं चाहिए था।

रश्मि- ओ मिस्टर० ओवरस्मार्ट जब मैं आई थी तब भी शॉप के बाहर ओपन का ही साइन था। तूने लगाया ही नही लंच ब्रेक का साइन।

विक्रांत- मां मजाक न करो?

रश्मि ये सुनकर विक्रांत के कान मरोड़ने लगती है और कहती है।

रश्मि- अच्छा बच्चू... अब अपनी मां को बताएगा तू, क्या सही और क्या गलत? चल सॉरी बोल उसे।

ये सब वही खड़ी हुई माया देख रही थी और देख कर हंस रही थी।

रश्मि- सॉरी बोल रहा है या नहीं? या फिर अब उठक-बैठक भी लगवाऊं?

विक्रांत- अरे... आउच आउच... मां छोड़ो ना, बोल रहा हूं सॉरी।

विक्रांत न चाहते हुए भी माया को सॉरी बोलता है। माया भी हंसते हुए उसे माफ कर देती है। फिर खरीदे हुए समान के पैसे देकर और रश्मि को नमस्ते करके वहां से चली जाती है।

माया जा चुकी होती है पर रश्मि गुस्से भरी निगाहों से विक्रांत को देखती है कि जैसे उसने कुछ ऐसा कर दिया हो जो उसे नही करना चाहिए था। विक्रांत वहां चुपचाप खड़ा रहता है।

इधर माया सब समान लेकर घर जा ही रही होती है। इस सब घूमने-फिरने में उसे टाइम का अंदाजा नहीं रहता और कब आठ बज जाते है उसे पता भी नहीं चलता। आसमान में देखती है तो सुंदर सा एक पूरा चांद उसकी ओर रोशनी बिखेर रहा होता है। पूर्णिमा की रात का वो चांद काफ़ी सुंदर लग रहा था।

माया घर जाने के लिए आगे तो बढ़ती है पर उसे कुछ दूर आगे चलकर न तो कोई इंसान दिखता है और न ही उसे अपने घर जाने का रास्ता याद आता है। वो ऑफिशियली रास्ता भटक चुकी होती है। रात धीरे-धीरे गहराती जा रही थी और धीरे-धीरे कोहरा बढ़ रहा था। माया को अपने पापा की कही हुई बात याद आती है और जो उसने वहां शॉप में देखा।

माया अपने आप से ही पूंछती है क्या वो उसका वहम था या वहां सच में कोई था?

आगे रास्ता ढूंढते-ढूंढते जाती तो है पर अलग ही डायरेक्शन में मुड़ जाती है। देखती है की वहां पर बड़े से पेड़ हैं और बाकी जगह के मुकाबले वहां अंधेरा कुछ ज्यादा है। फिर उसे लगता है कि किसी जंगल में आ गई है।

नौ बज गए होते हैं। जंगल से बाहर जाने का रास्ता खोजती तो है पर कुछ फायदा नहीं होता। माया वहीं अपनी साइकिल लेकर खड़ी हो जाती है। अचानक से उसे कहीं से कई सारे भेड़ियों के गुर्राने की आवाज आती है।

इधर माया जंगल से निकलने का रास्ता ढूंढ ही रही होती है। उधर वसुधा परेशान होती है की माया अभी तक क्यों नहीं आई? दुष्यंत भी अपनी मीटिंग से वापिस आ गए थे। डिनर का टाइम भी हो चुका था पर माया का कुछ अता-पता नहीं था।

जंगल में माया को वो आवाज सुनकर ऐसा लगता है की कई सारे भेड़िए उसके पास ही आ रहे हैं। माया एक बड़े से पेड़ के पीछे छिप जाती है। वो ध्यान से सुनती है तो उसे किसी के गुर्राने की आवाज सुनाई देती है।

अंधेरे की वजह से उसे कुछ साफ दिखाई नहीं आता। वो चुपके से उसी पेड़ की ओट से देखने की कोशिश करती है। वो हल्का सा देखती है तो वही बड़ी, चमकती पीली आंखें उसे दिखती हैं। जो की एक नहीं कई सारी होतीं हैं। उनमें दो आंखें सबसे बड़ी, सबसे चमकीली और गहरे लाल रंग की होती हैं।

कुछ देर वो आंखों का झुंड वहां ठहरता है और फिर गुर्राते हुए वो झुंड वहां से चला जाता है।

माया चैन की सांस लेकर बाहर निकलती है। बाहर निकलने पर उसे ऐसा लगता है की कोई बड़ी तेजी से उसके पास से गुजरा। माया अपनी साइकिल और सारा सामान उठाकर तेजी से, पूरी जान लगा कर भागने लगती है। पीछे मुड़कर देखती है तो वही पीली आंखें उसका पीछा कर रही होती हैं।

माया सिर्फ पीछे उन आंखों को ही देख रही होती है और भाग रही होती है। भागते भागते वो किसी से टकरा जाती है। सामने से कोई अपने फोन की फ्लैश लाइट उसके मुंह पर मारता है। माया अच्छे से देखती है तो उसे सामने एक लड़की खड़ी हुई दिखाई देती है। माया पीछे मुड़कर देखती है तो वो पीली आंखें उसे कहीं नहीं दिखती।

लड़की- हे गर्ल, यहां इतनी रात में जंगल में ऐसे कहां भागी जा रही हो? चोट तो नहीं लगी?

माया(घबराते हुए)- नहीं मैं ठीक हूं... पर... पर वो... (हांफते हुए) वो आंखें।

लड़की- अरे शांत हो जाओ पहले और गहरी सांस लो। फिर बताना।

माया दो मिनट गहरी सांस लेती है और शांत होकर फिर कहती है।

माया- अरे यार! वो पीली आंखें पीछा कर रही थीं मेरा। मैं तो बाई गॉड जान बचा कर भाग रही थी अपनी।

लड़की- अरे यार जंगल है, कौनसी पीली आंखें? शायद कोई जानवर होगा। शायद क्या पक्का कोई जानवर ही होगा। आफ्टर ऑल इट इज़ ए फॉरेस्ट।

माया- हां शायद। बाय दी वे आई एम माया। और मुझे लगता है की घर का रास्ता भूल गई हूं।

लड़की- अरे, मेरी तमीज़ कहां है? हेलो, मेरा नाम दीप्ती है। दीप्ती शर्मा। अच्छा, टेल मि, कहां रहती हो तुम?

माया- अच्छे से पता नहीं। कल ही शिफ्ट हुईं हूं मैं यहां।

दीप्ती- सही है यार तुम तो बड़ी डेयरिंग हो। पहले दिन ही जंगल में।

माया- अरे नहीं यार, मॉल रोड से घर जाना था। पता नही यहां कैसे आ गई मैं? ऊपर से घर में भी सब परेशान हो रहे होंगे। कहा था डिनर से पहले घर आ जाऊंगी।

दीप्ती- अच्छा पूरा नाम क्या बताया अपना?

माया- ओह सॉरी, माया, माया सिंह।

दीप्ती- नो वे ड्यूड, व्हाट ए कॉइंसिडेंस। तुम वही तो नहीं हमारी न्यू नेबर जो कल ही शिफ्ट हुए हैं। चलो मैं तुम्हे घर ले चलती हूं।

माया ये सुनकर थोड़ा हिचकिचाती तो है पर फिर दीप्ती के साथ चली जाती है। चलते चलते आखिर घर पहुंच ही जाती है। माया देखती है की वो और दीप्ती नेक्स्ट डोर नेबर्स हैं।

दीप्ती- अच्छा चल बाय, पड़ोसन।

माया- यार रुक ना। साथ चल अंदर। मां-पापा गुस्सा करेंगे, तू चल ना थोड़ी सिचुएशन संभाल लियो।

दीप्ती- माया यार, माना की पड़ोसी हैं पर अंदर जाकर क्या कहूंगी?

माया बिना कुछ सुने दीप्ती को अपने साथ अंदर ले जाती है। वहां घर में सब उसका ही इंतजार कर रहे थे। माया को देख कर सबकी जान में जान तो आती है पर कई सवाल भी होते हैं सबके मन में।

दुष्यंत- बेटा, क्या टाइम है ये घर आने का?

वसुधा- कहां थी? बोला था ना खो जाएगी। खो तो नही गई थी? ये कौन है?

माया- मां हां। खो गई थी। ये मेरी नई दोस्त है दीप्ती। यही घर तक लाई है। चार्ली के बारे में तो किसी ने पूछा ही नही पर चार्ली... अरे चार्ली? ओह नो, मां चार्ली कहां गया?

वसुधा- चार्ली को छोड़, तू ठीक है ना? कैमरा तो नया भी आ जायेगा। थैंक्यू बेटा, इसे यहां ले आई तुम।

दीप्ती- नमस्ते आंटी। अरे आंटी अब एक पड़ोसी ही तो पड़ोसी के काम आएगा न। मैं यही आपके बगल वाले घर में रहती हूं।

वसुधा और दुष्यंत- अच्छा तो आप हैं शर्मा जी की बेटी?

दीप्ती- जी अंकल। जी आंटी। अच्छा अब मैं चलती हूं। मां-पापा इंतज़ार कर रहे होंगे मेरा।

वसुधा- बेटा खाना तो खा कर जाओ।

दीप्ती- नहीं नहीं आंटी, कभी और आना होगा तो खाती हूं। वैसे भी रात काफी हो गई है।

दीप्ती अपने घर चली जाती है। माया तो आ गई थी पर चार्ली को खो दिया था। मन ही मन में सोच रही थी की कब उस जंगल में जायेगी और वो चार्ली को वापस लाएगी।

वसुधा और दुष्यंत सब चीजों से गुस्सा तो थे पर अपनी बेटी को वापस पाने के बाद सब भुला देते हैं। माया को गले लगाते हैं और उसे बताते हैं की कल से ईस्टर्न ग्रूव हाई में माया को क्लासेज करने जाना था। माया भी खुश होती है। उसके बाद खाना खाकर अपने कमरे में चली जाती है।पूरे दिन में जो अजीबोगरीब चीजें हुई उसने थका दिया था माया को। माया ये सोचते सोचते सो जाती है की क्या हो रहा है ये सब?

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