सुरासुर

सुरासुर

पूर्णिमा

रात में सन्नाटे से पसरी सड़क पर कंधे लटकाए हाथ झुलाए कर्ण आहिस्ता-आहिस्ता चल रहा है। नाई के दूकान को पार कर वो अपने कदमों को विराम देता है तथा सिर ऊपर की ओर उठाए अर्धखुली पलकों से चंद्रमा को घूरने लगता है-

"क्यों आखिर मैं ही क्यों मुझे ही क्यों चुना गया"?

प्रश्न की प्रतिक्रिया में वह चाँद खाईं में तब्दील होकर उसकों अपने भीतर खींच लेता है।

ऐसी रातों का कर्ण के जीवन में बड़ा महत्व रहा है क्योंकि पूर्णिमा को ही उसका जन्म और उसके पिता की सड़क दुघर्टना में मृत्यु हुई थी जिसके पश्चात् माँ ही उसका इकलौता सहारा और खुशी का ज़रिया रही परंतु यह खुशी भी उससे बारहवें जन्मदिन को किसी क्षत्रिय ने छीनकर उसे पूर्ण रूप से अनाथ बना दिया।

तेरहवीं के दिन उसके अनजान चाचा-चाची ने एक नौकर को गोद लिया जिधर तनख्वाह के रूप में पिटाई संग गालियाँ मुफ्त मिलती थी। प्रताड़ना के उस दौर में कर्ण को अपनी प्यास हफ्तों-हफ्तों तक दबानी पड़ी कंठ की ज्वाला ज्वालामुखी का रूप ले चुकी थी,पानी पी-पीकर वों अपना पेट गुब्बारे भांति फूला चुका था पर उससे कुछ फर्क नहीं पड़ा क्योंकि यदि मक्खी पानी पीकर अपनी प्यास बुझा लेती तो वो इंसानों को डंक मारती ना फिरती और जैसे ही ज्वालामुखीे फूटा नियति ने उसे सड़क पर पटक दिया।

"ना परिवार ना घर ना ही सुख, मिला है तो सिर्फ दर्द और दुख इससे अच्छा तो मुझे मौ...", यह कहते हुए उसकी ठुड्डी कांपने लगी,आंँखों पर धुंध छाने लगा,दिमाग चीख चीखकर सिर्फ एक ही विचार दोहरा रहा परंतु वह विचार को शब्द बनाने की हिम्मत उसकी नहीं हो पा रही।

समय गुजरने के साथ चंद्रमा चक्षुओं से ओझल हो गया, शरीर बेजान पड़ने लगा, अंग शिथिल हो गए,देह की हलचल ऐसा महसूस कराने लगी मानों आत्मा किसी भी क्षण जेल से स्वत: रिहा होकर उड़ चलेगी शशि की ओर जहाँ उसका परिवार इंतजार कर रहा है। माँसपेशीं के बाधा को पार कर आत्मा ने त्वचा की सतह को स्पर्श ही करा था कि-

बूम्म्म!

पर्दों को सुन्न करती हुई धमाके ने कर्ण के रूह को वापस देह में धकेल डाला।दूकान के ठीक सामने वाली चार मंजिला इमारत में से धुँए का गुबार आकाश की ओर उठ रहा है, इमारत के अवशेष सड़क पर बेतरतीब फैले हैं तथा सामने खड़ा कर्ण सिर्फ इस घटना का एकमात्र साक्षी जो खुद असमंजस में है।

मामले की गंभीरता बढ़ाते हुए धुंए से चार लोचनों वाला एक प्राणी किसी व्यक्ति को जबड़ों में जकड़े प्रकट होता है।भूमि में धमकते ही वह उसे रास्ते पर लिटाता है और पसली पर पकड़ जमाता हुआ एक ही झटके में सर को कागज समान फाड़कर गले में उतार लेता है।

पहले ही नज़र में कर्ण समझ गया कि ये भूरे रंग का मानव जैसे शरीर वाला प्राणी एक असुर है वों भी अपने कालकेय रूप में जिसका सबूत उसके माथे पर तेजी से चमकता हुआ लाल रक्तानिधी था। व्यक्ति का काम तमाम करते ही वह नाक फड़कते हुए अपनी नज़रों को उठाकर गुर्राने लगा।

कुक्कर के खून टपकाते नुकीले दाँतों को देख वह ये बात समझ चुका था कि असुर का पेट अभी भरा नहीं है तथा ऐसे हालात में सिर्फ एक ही अंग उसकी मदद कर सकते थे जो थे उसके- पैर।

'भाऊ-भाऊ-गररर-भाऊ-भाऊ'

'हँ-हँ-हँ'

अपनी पूरी ताकत से भागने के बावजूद भी भौंकनें की ध्वनि बढ़ती ही जा रही थी कि तभी ऐसे नाज़ुक वक्त में 'टक' से कर्ण का चप्पल उसका साथ छोड़ देती है और वो नीचे गिर पड़ता है। पलकें खुली तो उसके समक्ष साक्षात् यमराज यमलोक का लाल द्वार खोले खड़े थे।

भय का प्रभाव हटा तो चेतना ने अपना कब्जा जमाया जिसने उसके भागने को व्यर्थ करार दिया क्योंकि वों क्यों भागे,किसके लिए भागे, क्या रह चुका है भागने लायक ये तो ईश्वर का वही वरदान है जो वों हमेशा माँगता था।

कर्ण ने अपने साँसों की गति को धीमी करा तथा अपनी नजरों को असुर से मिलाकर खुद को इस आखिरी पीड़ा के लिए तैयार कर लिया। समीप आते द्वार में प्रवेश लेकर वह अपनी आँखें बंद कर लेता है।

...टंग की धुन कर्ण के कानों में गूंज उठी।...

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