फूलों से भरी घाटी, जहाँ सब लोग बड़े ही प्यार से, मिल जुलकर रहते हैं। मोर हर सुबह अपने पँख फहराते हैं, कूह-कूह करती कोयल मानों जैसे मन को मोह लेने वाले गीत लगा रही है।
स्वर्णलोक, एक बहुत ही विशाल राज्य, जो कि धर्मराज साम्राज्य के अंदर आता था।
"अरे! महाराज आए है। जल्दी से बैठेने का इंतज़ाम करो!" स्वर्णलोक के राजा, श्री त्रिलोक नाथ हर चार माह के बाद, अपनी प्रजा से मिलने और उनकी शिकायतें, बातें सुनने अलग अलग जगहों पर जाया करते थे।
"तो बताईए। क्या शिकायतें हैं अब की बार?" महाराज ने मुस्कुराते हुए पूछा।
"महाराज, शिकायतें तो कुछ भी नहीं।" उस गाँव के एक निवासी ने जवाब दिया। उसकी बात पर बाकी ग्रामीणों ने भी हामी भरी। वह सब हाथ जोड़े महाराज के आगे, नीचे मिट्टी में बैठे थे।
"ये कैसे संभव है?" राजा ने हँसते हुए कहा।
गाँव वालों ने एक दूसरे की तरफ देखा। फिर उनमें से एक व्यक्ति उठ खड़ा हुआ और मुस्कुराते हुए बोला, "महाराज, जब से आपने राजकुमार को सभी काम सौंपे हैं, तब से हमें कोई भी दुविधा का सामना नहीं करना पड़ा है।"
"जी महाराज। राजकुमार हम सबको अपने परिवार जैसा मानते है।" एक औरत ने कहा। उसकी आँखें भर आई थी, उसने अपने बच्चे को गोद में लिया और अपने आँसू पोंछे।
राजा को यह सुनते हुए बहुत खुशी हुई, "लगता है अब समय आ चुका है कि कुमार का राज्याभिषेक किया जाए।"
राजकुमार को राज्य का काम सौंपने से पहले राजा श्री त्रिलोक नाथ ने अपने मंत्रियों को यह ज़िम्मेदारी दी थी जो कि शायद इतने सफल नहीं हो पाए।
केवल एक वर्ष में ही अपनी प्रजा का दिल जीत के राजकुमार ने महाराज का दिल भी जीत लिया था। इसलिए महाराज ने फैसला किया कि अब उन्हें राजकुमार का अभिषेक कर देना चाहिए।
इस खास अवसर पर, महल को बड़ी ही खूबसूरत तरीके से सजाया गया। राज्य के सभी लोग ये दिन बड़े ही धूम धाम से मना रहे थे।
अलग अलग देशों से भी लोगों को आमंत्रित किया गया था। उन्ही में से एक था अर्जुन, अँबुझ राज्य का राजकुमार। जिसकी उम्र थी 21 साल। वह बहुत ही सुन्दर और प्यारा था। उसकी आवाज़ में मानो जैसे शहद घुला हो, सुनते ही मन को चैन आ जाए।
"अरे मधु! यह क्या कर रही हो!" उसने हँसते हुए कहा।
हर बार की तरह वह इस बार भी अपनी पक्की सहेली के साथ मस्ती कर रहा था। मधुबाला को वह अपनी दासी कम, और अपना मित्र ज्यादा मानता था।
"कुमार, ये लड्डू तो आपको चखने ही पड़ेंगे।" मधुबाला अर्जुन के पीछे मोतीचूर का एक लड्डू लिए भाग रही थी।
"दीदी ने कल लड्डू खिला खिला कर मेरी हालत खराब कर दी।" अर्जुन हँसते हुए बोला और मधुबाला से दूर भागते हुए चिल्लाया। "बस! अब और लड्डू नहीं!"
वह दोनों मस्ती कर रहे थे कि तभी अचानक से कुछ बदमाशों ने मधुबाला का रास्ता रोक लिया, "अरे रूप की कन्या किधर चली?"
अपनी सखी के प्रति ऐसा दुर्व्यवहार देखकर अर्जुन तुरंत ही उसके पास दौड़ा आया।
"मधु! इनसे तो मैं निपटा हूँ।" यह कहकर वह मुस्कुराया। किंतु मधुबाला ने उसे ऐसा करने से मना कर दिया।
"कुमार, हमें जितना हो सके ऐसी परिस्थितियों को नजरअंदाज करना है। याद है ना महाराज ने क्या कहा था।" मधुबाला ने कहा और अर्जुन का हाथ पकड़कर वहाँ से जाने लगी कि तभी उन नौजवान लड़कों में से एक ने पीछे से राजकुमार अर्जुन का हाथ पकड़कर उसे अपनी ओर खींच लिया। मधुबाला चौंक गई और तुरंत ही मुड़ गई। "कुमार!" वह चींख पड़ी।
अर्जुन भी कम नहीं था। वह तो ऐसे ही क्षण के इंतज़ार में था कि कब उसे उन लोगों को सबक सिखाने का मौका मिलेगा। उसने अपनी कमर से बँधी तलवार को म्यान से निकला और उस लड़के के गले पर निशाना साँधा। "क्यों? चौंक गए?" ऐसा कहकर वह हँसने लगा। उसने मधु की ओर देखा और उसके हाथ से वह लड्डू छीन लिया। "इसी क्षण के इंतज़ार में था यह लड्डू भी।" और उसने उस लड्डू को एक ही बार में खा लिया।
"वाकई में। आप सच में राजकुमार है?" अर्जुन की तलवार का निशाना बने नौजवान ने कहा। अर्जुन ने लड्डू चबाते हुए उसकी ओर देखा और अपनी तलवार को वापिस म्यान में डाल लिया।
"जी बिलकुल। राजकुमार तो हम है और वो भी अंबुझ राज्य के। पुरे विश्व में सबसे अधिक खुबसूरत जगह। और मेरा शुभ नाम, अर्जुन वेनू।"
"अद्भुत!" वह लड़का बोला। "मुझे खुशी होगी अगर आप जैसा कोई हमारा भी मित्र बने। मेरा शुभ नाम देव, और कुल कमल। यानी देव कमल।" वह मुस्कुराया।
"वाह। नाम देव और हरकतें शैतानों वाली।" अर्जुन उसे ताना कसते हुए हँसा। इससे मधुबाला भी हँस पड़ी। और देव कमल के साथ उसके बाकी तीन मित्र भी। इस मज़ाक से स्वयं देव के चहरे पर भी मुस्कान आ गयी।
"वैसे... " देव ने शर्मिंदगी भरी नज़रों से अर्जुन की ओर देखा, "अभी कुछ क्षण पहले मेरे इस मूर्ख मित्र ने आपकी सखी के साथ गलत सूलूक किया। उसके लिए मैं आपसे क्षमा मांगता हूँ।" उसने गर्दन झुकाके माफ़ी मांगी। नकुल, वह मित्र जिसने मधु को छेड़ा, ने भी अपनी गलती का अहसास करके माफ़ी मांगी। उसने तो बस मज़ाक ही किया था पर हर बात मज़ाक नहीं होती। इस बात का अहसास उसे अपने जीवन के 18 वर्ष में आज तक नहीं हुआ।
"ममम। माफ़ किया।" मधुबाला ने जवाब दिया। "किंतु उसका क्या जो आपने मेरे राजकुमार के साथ किया?" उसने देव की ओर देखा।
देव ने तुरंत ही अर्जुन की ओर देखा, "आपका हाथ खींचने के पीछे मेरा कोई शैतानी ईरादा नहीं था। यकीन कीजिए!"
अर्जुन हँस कर बोला, "जो भी हो। मैंने क्षमा किया।"
"तो अब हमें आज्ञा दीजिये।" अर्जुन मुस्कुराया और मधुबाला के साथ वहां से चल दिया।
अर्जुन को जाते हुए देख देव ने लंबी सांस ली और फिर छोड़ी, "कोई इतना प्यारा कैसे हो सकता है?" उसने धीमी सी आवाज़ में कहा। उसके चेहरे पर एक अंजान सी मुस्कान थी जिसका अंदाज़ा शायद उसे भी नहीं था।
"रुको रुको!" देव कमल के साथ खड़े उसके मित्र योगेश ने कहा। "कही ये प्रेम तो नहीं?" वह हैरानी भरी आवाज़ में चिल्लाया और वो भी बीच भरे बाज़ार में।
देव ने तुरंत ही अपनी मुस्कान छुपाई और बेचैनी के साथ इधर उधर देख कर आदेश देने लगा, "जल्दी करो। हमें बहुत सारे कार्य सँभालने है। ज़रा सी भी देरी नहीं होनी चाहिए।" यह कहकर वह तेज़ी से आगे चल पड़ा।
"अरे! रुको तो सही!" पवन, देव का चौथा मित्र चिल्लाया।
...... ...
"कुमार! सच में स्वर्णलोक राज्य वाक़ई में स्वर्ण ही है।" मधुबाला महल को निहारते हुए बोली।
"सत्य वचन।" अर्जुन ने जवाब दिया।
राजमहल में उस दिन राजकुमार ईन्द्रजीत का राज्य अभिषेक था, इसलिए दूर दूर से राजकीय व आम लोग आए थे। इतने लोगों को एक साथ देख अर्जुन अचंभित था क्योंकि इससे पता चलता है कि राजकुमार इंद्र्जीत उन सभी लोगों को कितने प्रिय थे। अर्जुन यह सब सोच ही रहा होता है कि उसी वक्त द्वारपाल कहता है, "देवों के आशीर्वाद सहीत, राज्य के हित में सदैव खड़े रहने वाले, शुद्ध व विकसित विचारों वाले, स्वर्णलोक के राजाधिराज, योगीराज, श्री श्री श्री त्रिलोक नाथ पधार रहे हैं।" यह सुनते ही राजमहल में बैठे सभी सदस्य सम्मान सहित उठ खड़े हुए। अर्जुन और मधुबाला भी।
राजा त्रिलोक नाथ के पीछे ही राजकुमार इंद्रजीत भी आ रहे थे। उसकी आँखें मानों जैसे अपने पिता के आदेशों के अलावा कुछ और देखती ही नहीं। परन्तु उन ही आँखों में यदि कोई कुछ क्षणों से अधिक देख लें, तो डूब ही जाए। अर्जुन का भी यही हाल था। वह इंद्रजीत से अपनी नज़रे हटा ही नहीं पा रहा था।
राजकुमार इंद्रजीत
मधुबाला भी राजकुमार की सुन्दरता देख चकित थी, "कुमार, यह राजकुमार तो बहुत ही-" उसने अर्जुन की ओर देखा और उसे तुरंत ही समझ में आ गया कि अर्जुन पहले से ही स्वर्णलोक के राजकुमार की आंखों में डूब चुका था। वह मुस्कुराने लग गई।
अर्जुन इंद्रजीत को देख ही रहा होता है कि तभी उसकी नज़र उसके सामने खड़े व्यक्ति पर पड़ी। वह व्यक्ति कोई और नहीं बल्कि देव कमल था। "ये यहाँ क्या कर रहे हैं?" उसने सोचा। "जो भी हो।" उसने देव से नज़र हटाई और फिर से इंद्रजीत की ओर देखने लगा। तभी अचानक इंद्रजीत ने भी उसकी ओर देखा। दोनों ने कुछ ना कहते हुए भी नज़रों ही नज़रों में बहुत कुछ कह दिया।
राज्य अभिषेक के सभी कार्य शुरू हुए और राज्य पुरोहित ने मंत्र पढंने शुरू कर दिए। सभी मौजूद लोग राजकुमार इंद्रजीत को ही निहार रहे थे मानो जैसे वह कोई देव हो।
धीरे धीरे कुछ ही क्षण के अंदर राज्य अभिषेक सम्पन्न हुआ।
"हमें गर्व है ऐसा पुत्र पाके जिसके लिए उसका कर्तव्य ही सबसे श्रेष्ठ है। किंतु..." राजा त्रिलोक नाथ बोलते बोलते रुक गए।
"किंतु क्या महाराज?" हँसराज दामोदर, जो कि महाराज का सबसे भरोसेमंद मंत्री था, ने पूछा। (वह एक नौजवान व अनुभवी व्यक्ति था।)
"मुझे डर है कि कहीं हर क्षण केवल कार्य और कर्तव्य सँभालते सँभालते वह अपना जीवन जीना ही ना भूल जाए।" महाराज ने जवाब दिया। "ऐसा लगता है कि जैसा ज़िम्मेदारीयों के कारण उसने जीवन में अपनी खुशी की लालसा ही छोड़ दी है।"
हँसराज ने इंद्रजीत की ओर देखा। इंद्रजीत की आंखों में ना ही कोई चमक थी और ना ही कोई और भावना। केवल कार्य की चिंता। हँसराज ने वापस महाराज की ओर देखा और कहा, "मैं राजकुमार को अपने अनुज (छोटा भाई) जैसा मानता हूँ। मैं आपको वचन देता हूँ कि राजकुमार को अपना जीवन जीने की लालसा जल्द ही महसूस होगी।" वह मुस्कुराया।
महाराज एक एक करके सभी मेहमानों से वार्तालाप कर रहे थे उनके स्वागत के तौर पे। अब बारी थी अर्जुन की जो कि अंबुझ राज्य की तरफ़ से आया था।
"महाराज, आपके बारे में खूब सुना था पिता जी के मुँह से। आज देख भी लिया। वाकई में आपका तेज ही काफ़ी है आपकी योग्यता को दर्शाने के लिए।" अर्जुन ने त्रिलोक नाथ को प्रणाम करने के बाद कहा।
राजा त्रिलोक नाथ हँसे और बोले, "सच में क्या ऐसा कहा महाराज धनवीर ने?"
"जी।" अर्जुन ने जवाब दिया। वह हँसा।
राजा त्रिलोक नाथ और राजा धनवीर (अर्जुन के पिता) बचपन में बहुत ही खास मित्र हुआ करते थे। इस हिसाब से, अर्जुन उनके लिए एक खास मेहमान था।
"अरे! मेरे बेटे से तो मिलिए!" त्रिलोक नाथ ने कहा और इंद्रजीत को आवाज़ लगाई।
इंद्रजीत ने महाराज की ओर देखा और तुरंत ही वहां जा खड़ा हुआ। "महाराज, आज्ञा।" उसने सिर नीचे करके कहा।
त्रिलोक नाथ हँसते हुए बोले, "कुमार। आज कोई आज्ञा नहीं। यह है मेरे बचपन के परम मित्र के सुपुत्र, अर्जुन वेनू।" वह मुस्कुराया।
अर्जुन ने मुस्कुराते हुए इंद्रजीत की ओर देखा, "प्रणाम। मिल के खुशी हुई।" मधुबाला ने भी प्रणाम किया।
इंद्रजीत ने केवल सिर झुकाकर प्रणाम किया। वह एक शब्द भी नहीं बोला।
"ये तो बड़ी अजीब बात है। इतने बड़े राज्य के होने वाले राजा होते हुए भी ऐसे स्वागत करते हैं अपने अतिथियों का?" अर्जुन ने मुंह बनाते हुए सोचा। इंद्रजीत का मुस्कुराना या कुछ कहना तो बाद की बात है, वह तो अर्जुन की तरफ़ देख भी नहीं रहा था।
तभी वहां हँसराज भी आ पहुंचता है। उसने दूर से अर्जुन को देखा और हैरानी से बोला, "राजकुमार अर्जुन!" वह दौड़ता हुआ उसकी ओर भागा।
अपना नाम सुनाई देने पर अर्जुन ने मुड़ के देखा और पाया कि उसे पुकारने वाला कोई और नहीं बल्कि हँसराज था। वह भी उसे देख कर हैरान था, "मित्र हँसराज!" वह दौड़ते हुए उसकी ओर गया और दोनों ने एक दूसरे को गले लगाया। अर्जुन तो हँसराज को गले लगाते हवा में ही झूल रहा था। (छोटा कद जो ठहरा। हाहाहा!)
अब की बार इंद्रजीत ने उनकी तरफ़ अवश्य देखा।
मधु भी हँसराज के पास गई और उसने मुस्कुराते हुए उसके चरण स्पर्श किए। "अरे। खुश रहो।" हँसराज ने मधू को आशीर्वाद देते हुए कहा।
"हमारे लिए हैरानी की बात है।" महाराज ने कहा। "तुम दोनों एक दूसरे को इतने अच्छे से जानते होंगे, इसका ज्ञान मुझे नहीं था।"
"दरअसल, कुछ वर्ष पूर्व मैं अपने पिता के कहने पर आसपास के राज्यों में झड़ी बूटियों की तलाश में था। उसी वक्त मेरी भेंट राजकुमार अर्जुन से हुई। इतने प्यारे व्यक्ति से भला मैं मित्रता कैसे ना करता।" हँसराज ने जवाब दिया। (हँसराज के पिता जाने माने ज्ञानी वैद्य थे।)
"अच्छा। फिर?" महाराज ने उत्सुकता के साथ पुछा।
"फिर क्या। हम बातों ही बातों में कब इतने अच्छे मित्र बन गए, पता ही नहीं चला।" हँसराज ने जवाब दिया।
अर्जुन भी मुस्कुराया, "और उसके पश्चात हमने एक दूसरे को कबूतर के ज़रिए संदेश लिखने शुरू कर दिए।" मधुबाला भी मुस्कुराई।
इससे पहले उनके बीच कोई और बात होती, इंद्रजीत ने कहा, "महाराज, मुझे अब आज्ञा दें। बाकी मेहमानों का भी ख्याल रखना है।"
"अच्छा? ठीक है। " महाराज ने उत्तर दिया किन्तु अन्दर ही अन्दर वह चाहता था कि इंद्रजीत आज के दिन काम ना करे। इंद्रजीत बिना कुछ कहे वहां से चला गया। "माफ़ करना पुत्र। मेरा बेटा ऐसा ही है।" त्रिलोक नाथ ने अर्जुन और मधुबाला से क्षमा मांगते हुए कहा।
"कोई बात नहीं महाराज! आप क्षमा क्यों मांग रहे हैं?" अर्जुन ने तुरंत जवाब दिया।
महाराज से वार्तालाप करने के पश्चात अर्जुन और मधुबाला महल के बगीचे में टहल रहे थे कि अचानक उन्हें वहां राजकुमार इंद्रजीत दिखाई देता है।
"अरे! राजकुमार इंद्रजीत?" अर्जुन मधुबाला की ओर देखकर मस्ती भरे चहरे से मुसकराया।
उन्होंने दूर से देखा, इंद्रजीत ज़मीन पर बैठा हुआ था और तालाब की ओर देख रहा था। उसके हाथ में एक खरगोश था और कुछ उसके आस पास भी थे। अर्जुन और मधुबाला एक ही स्थान पर खड़े, दूर से सब कुछ देख रहे थे। तभी इंद्रजीत ने खरगोश को प्यार से ज़मीन पर रख दिया और अपने पास खड़े अपने दास से हाथ आगे करके कुछ माँगा। उस दास ने उसके हाथ में सम्मान सहित एक बाँसुरी रख दी। इंद्रजीत ने उस ही क्षण बाँसुरी को अपने होंठों से लगाया और मधुर सुर बजाने लगा। अर्जुन और मधुबाला की आंखें अपने आप ही बंद हो गई। मानो जैसे इंद्रजीत की बाँसुरी उन्हें कोई और ही दुनिया में ले गई हो।
देखते ही देखते इंद्रजीत के पास एक हिरण का बच्चा भी आ गया। और कुछ ही क्षण में बगीचे में घूम रहीं गाएँ और बछड़े भी आ गए।
इंद्रजीत की बाँसुरी खत्म होने पर तुरंत ही अर्जुन ने अपनी आँखें खोली। उसका ह्रदय अभी संतुष्ट नहीं हुआ था। वह और सुनना चाहता था। परन्तु इतने सारे पक्षु- पक्षी अपनी आँखों के सामने देख कर अर्जुन अचंभित था। वहा दो-चार मोर भी इकट्ठे हो चुके थे।
"इतना मनमोहक द्रष्य!" मधुबाला ने कहा।
अर्जुन को अपनी आँखों पर यकीन ना आया क्योंकि महाराज त्रिलोक नाथ और मंत्री हँसराज ने जो राजकुमार इंद्रजीत के बारे में बताया, ये उसके एकदम विपरीत था।
कुछ क्षण पहले-
"राजकुमार, हमें समझ नहीं आता कि मेरे पुत्र का अपनी ज़िम्मेदारीयों के प्रति इतना समर्पित होना अच्छी बात है या बुरी। मुझे डर है कि इन राजकीय ज़िम्मेदारीयों को अपने कँधों पर लिए, वह अपना जीवन जीना ही ना भूल जाए।" महाराज त्रिलोक नाथ ने कहा।
"महाराज, समय के साथ सब ठीक हो जाएगा।" अर्जुन ने जवाब दिया।
महाराज ने दुख भरी आह ली और बोले, "उसकी आँखों में कोई चमक हमें दिखाई नहीं पड़ती। उसका ह्रदय नदी के उस मजबूर किनारे जैसा है जो चाहते हुए भी, नदी को बहने से रोक नहीं सकता। उसकी ज़िंदगी भी उसकी आँखों के सामने से गुज़रती जा रही है परंतु वह कुछ करता ही नहीं।" महाराज की आंखों में एक पिता का दर्द था।
"कुमार अर्जुन, एक विनती है हमारी आपसे।" हँसराज ने कहा। उसकी आवाज़ में भी एक चिंता सी थी।
"कैसी विनती?" अर्जुन ने पूछा।
हँसराज आगे बढ़ा, "कर्प्या करके कुमार इंद्रजीत को जीवन खुल के जीने का सही मार्ग दिखाए!"
महाराज ने भी विनती की, "हम आपके बहुत बहुत आभारी होंगे!"
अर्जुन अब किसी भी तरह से इंकार नहीं कर सकता था।
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