गुनाहों का देवता हिंदी उपन्यासकार धर्मवीर भारती के शुरुआती दौर के और सर्वाधिक पढ़े जाने वाले उपन्यासों में से एक है। यह सबसे पहले 1959 में प्रकाशित हुई थी। इसमें प्रेम के अव्यक्त और अलौकिक रूप का अन्यतम चित्रण है। सजिल्द और अजिल्द को मिलाकर इस उपन्यास के एक सौ से ज्यादा संस्करण छप चुके हैं। पात्रों के चरित्र-चित्रण की दृष्टि से यह हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ उपन्यासों में गिना जाता है।
25 दिसंबर 1926 को इलाहाबाद में जन्में धर्मवीर भारती का 4 सितंबर 1997 को निधन हुआ, पर इससे पहले ही वह हिंदी साहित्य में अपनी अमर रचनाओं की धमक छोड़ चुके थे. उनकी प्रमुख कृतियों में कहानी संग्रह: मुर्दों का गाव स्वर्ग और पृथ्वी, चांद और टूटे हुए लोग, बंद गली का आखिरी मकान, सास की कलम से, समस्त कहानियां एक साथ; काव्य रचनाएं: ठंडा लोहा, अंधा युग, सात गीत वर्ष, कनुप्रिया, सपना अभी भी, आद्यन्त शामिल है.
उपन्यास: गुनाहों का देवता, सूरज का सातवां घोड़ा, ग्यारह सपनों का देश, प्रारंभ व समापन तथा निबंध: ठेले पर हिमालय, पश्यंती के अलावा धर्मयुग पत्रिका के प्रधान-संपादक के तौर पर उन्होंने हिंदी साहित्य को जो दिया वह अद्भुत है. उनकी कई कहानियों और उपन्यास पर फिल्म भी बन चुकी है, पर आज हम बात करेंगे 'गुनाहों का देवता' की. क्या उपन्यास था यह और कैसी थी इसकी प्रेम कहानी? आज भी युवाओं के बीच इस कहानी की चर्चा इसके दुखांत अंत के चलते होती है.
युवाओं की नज़र में यह हिंदुस्तान की सबसे दुखांत प्रेम कहानियों में से एक है. सोशल मीडिया पर लिखी टिप्पणियां इस बात की गवाह हैं.
कौन सा गुनाह ? कैसा गुनाह ?
किसी से जिंदगी भर स्नेह रखने, प्रेम करने का गुनाह...
स्नेह और प्रेम जब अपनी पराकाष्ठा पर पहुँचने लगे तो उसका त्याग करने का गुनाह...
है ना अजीब बात!
पर यही तो किया चंदर ने अपनी सुधा के साथ!
इस भुलावे में कि दुनिया प्यार के ऐसी पवित्रता के गीत गाएगी...
प्यार भी कैसा...
घर भर में अल्हड़ पुरवाई की तरह तोड़-फोड़ मचाने वाली सुधा, चंदर की आँख के एक इशारे से शांत हो जाती थी. कब और क्यूँ उसने चंदर के इशारों का यह मौन अनुशासन स्वीकार कर लिया था, ये उसे खुद भी मालूम नहीं था और ये सब इतने स्वाभाविक ढंग से इतना अपने आप होता गया कि कोई इस प्रक्रिया से वाकिफ नहीं था........... दोनों का एक दूसरे के प्रति अधिकार इतना स्वाभाविक था जैसे शरद की पवित्रता या सुबह की रोशनी.... "
धर्मवीर भारती की गुनाहों का देवता सबसे पहले 1959 में प्रकाशित हुई थी. 60 साल बीत चुके हैं, पर आज भी लड़के-लड़कियां ऐसे इश्क से दोचार होते हैं. इस कहानी का ठिकाना अंग्रेजों के समय का इलाहाबाद था. इस कहानी के चार मुख्य किरदार हैं. हीरो चन्दर, प्रेमिका सुधा, और चंदर की दो और दीवानी बिनती और पम्मी. गुनाहों का देवता की पूरी कहानी इन्हीं किरदारों के इर्दगिर्द घूमती है. चन्दर यानी इस प्रेम कहानी का हीरो सुधा के प्रोफेसर पिता के प्रिय छात्रों में से एक है. इसी के चलते प्रोफेसर के घर वह किसी रोकटोक के आता-जाता रहता है. इसी दौरान प्रोफेसर की बेटी सुधा कब उसे दिल दे बैठती है, पता ही नहीं चलता. साठ के दशक का यह प्रेम आज के प्रेम से बिल्कुल अलग था. यह कोई साधारण प्रेम नहीं था. इस प्रेम में तन के खिंचाव से ज्यादा मन का लगाव था. चन्दर सुधा का देवता था और सुधा ने हमेशा एक भक्त की तरह ही उसे सम्मान दिया था.
चंदर सुधा से प्रेम तो करता था, लेकिन सुधा के पिता के उस पर किए गए अहसान ने उसे कुछ ऐसे घेरे रखा कि वह चाहते हुए भी कभी अपने मन की बात सुधा से नहीं कह पाया. सुधा की नजरों में वह देवता ही बने रहना चाहता था, और होता भी यही है. गुनाहों का देवता में सुधा से उसका नाता वैसे ही रहता है, जैसे एक देवता और भक्त का होता है. प्रेम को लेकर चंदर का द्वंद्व पूरे उपन्यास में इस कदर हावी है कि सुधा की शादी कहीं और हो जाती है, और अंत में वे पूरे जीवन दर्द भोगते हैं.
पम्मी इस कहानी का त्रिकोण है. वह एक एंग्लोइंडियन लेडी है, जो तलाक के बाद चंदर की तरफ खिंचती है. उसे चंदर और सुधा के प्यार का पता है. एक बार वह कहती है, "शादी और तलाक के बाद मैं इसी नतीजे पर पहुँची हूँ कि चौदह बरस से चौंतीस बरस तक लड़कियों को बहुत शासन में रखना चाहिए...इसलिए कि इस उम्र में लड़कियाँ बहुत नादान होती हैं...जो कोई भी चार मीठी बातें करता है, तो लड़कियाँ समझती हैं कि इससे ज्यादा प्यार उन्हें कोई नहीं करता... इस उम्र में जो कोई भी ऐरा-गैरा उनके संसर्ग में आ जाता है, उसे वे प्यार का देवता समझने लगती हैं और नतीजा यह होता है कि वे ऐसे जाल में फँस जाती हैं कि जिंदगी भर उससे छुटकारा नहीं मिलता."
धर्मवीर भारती ने अपने उपन्यास में पम्मी और चंदर के संबंधों की गहराई से बताते हुए थोड़ा सेक्सुअल टच तो दिया है, पर वल्गैरिटी कहीं नहीं रखी. उसमें सिहरन है, रोमांच व रोमांस है, पर उत्तेजना नहीं. एक जगह चंदर जब पम्मी को छुता है, तो उसके अनुभव के बहाने धर्मवीर भारती आदमियों को लेकर औरतों की समझ का बयान यों करते हैं.
"औरत अपने प्रति आने वाले प्यार और आकर्षण को समझने में चाहे एक बार भूल कर जाये, लेकिन वह अपने प्रति आने वाली उदासी और उपेक्षा को पहचानने में कभी भूल नहीं करती। वह होठों पर होठों के स्पर्शों के गूढ़तम अर्थ समझ सकती है, वह आपके स्पर्श में आपकी नसों से चलती हुई भावना पहचान सकती है, वह आपके वक्ष से सिर टिकाकर आपके दिल की धड़कनों की भाषा समझ सकती है, यदि उसे थोड़ा-सा भी अनुभव है और आप उसके हाथ पर हाथ रखते हैं तो स्पर्श की अनुभूति से ही जान जाएगी कि आप उससे कोई प्रश्न कर रहे हैं, कोई याचना कर रहे हैं, सान्त्वना दे रहे हैं या सान्त्वना माँग रहे हैं। क्षमा माँग रहे हैं या क्षमा दे रहे हैं, प्यार का प्रारम्भ कर रहे हैं या समाप्त कर रहे हैं। स्वागत कर रहे हैं या विदा दे रहे हैं। यह पुलक का स्पर्श है या उदासी का चाव और नशे का स्पर्श है या खिन्नता और बेमानी का।"
एक जगह वह कहते हैं, शरीर की प्यास भी उतनी ही पवित्र और स्वाभाविक है जितनी आत्मा की पूजा. आत्मा की पूजा और शरीर की प्यास दोनों अभिन्न हैं.
चंदर की जिंदगी में सुधा व पम्मी साथ ही बिनती भी आई होती है. वह उसकी जीवन साथी भी बनती है. पर उसे पता होता है कि सुधा व पम्मी से टूट चुका चंदर उसे मिला है...इस उपन्यास की आखिरी लाइनें हैं... "सितारे टूट चुके थे. तूफान खत्म हो चुका था. नाव किनारे पर आकर लग गयी थी- मल्लाह को चुपचाप रुपये देकर बिनती का हाथ थामकर चन्दर ठोस धरती पर उतर पड़ा...मुर्दा चाँदनी में दोनों छायाएँ मिलती-जुलती हुई चल दीं. गंगा की लहरों में बहता हुआ राख का साँप टूट-फूटकर बिखर चुका था और नदी फिर उसी तरह बहने लगी थी जैसे कभी कुछ हुआ ही न हो.
हरिवंश राय बच्चन (27 नवम्बर 1907 – 18 जनवरी 2003) हिन्दी भाषा के एक कवि और लेखक थे। वे हिन्दी कविता के उत्तर छायावाद काल के प्रमुख कवियों में से एक हैं। उनकी सबसे प्रसिद्ध कृति मधुशाला है। भारतीय फिल्म उद्योग के प्रख्यात अभिनेता अमिताभ बच्चन उनके सुपुत्र हैं। उनकी मृत्यु 18 जनवरी 2003 में सांस की बीमारी के वजह से मुम्बई में हुई थी।
उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अंग्रेजी का अध्यापन किया। बाद में भारत सरकार के विदेश मंत्रालय में हिन्दी विशेषज्ञ रहे। अनन्तर राज्य सभा के मनोनीत सदस्य रहे। बच्चन जी की गिनती हिन्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय कवियों में होती है।
हरिवंश राय बच्चन की कृतियां
इस महान कवि ने गीतों के लिए आत्मकथा निराशा और वेदना को अपने काव्य का विषय बनाया है। उनकी सबसे प्रसिद्ध काव्य कृतियों में से निशा निमंत्रण मिलन यामिनी धार के इधर-उधर आदि अग्रणी है।
हरिवंश राय बच्चन की गद रचनाओं में क्या भूलूं क्या याद करू ,टूटी छुट्टी कड़ियां ,नीड़ का निर्माण फिर फिर आदि श्रेष्ठ है।
मधुबाला, मधुकलश, सतरंगीनी , एकांत संगीत , निशा निमंत्रण, विकल विश्व, खादी के फूल , सूत की माला, मिलन दो चट्टानें भारती और अंगारे इत्यादि बच्चन के मुख्य कुर्तियां है।
हरिवंश राय बच्चन की उपलब्धियाँ
1968 में अपनी रचना “दो चट्टानें” कविता के लिए भारत सरकार द्वारा साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित हुआ था।
कुछ समय बाद उन्हें सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार और afro-asian सम्मेलन का कमल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया
उनकी सफल जीवन कथा , क्या भूलूं क्या याद रखु , निंदा का निर्माण फिर , बसेरे से दूर और दस द्वार पर सोपन तक के लिए बिरला फाउंडेशन द्वारा सरस्वती पुरस्कार से सम्मानित हुआ।
1976 मैं उनके हिंदी भाषा के विकास में अभूतपूर्व योगदान के लिए पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।
हिन्दी काव्य प्रेमियों में हरिवंश राय बच्चन सबसे अधिक प्रिय कवि रहे हैं और सर्वप्रथम 1935 में प्रकाशित उनकी 'मधुशाला' आज भी लोकप्रियता के सर्वोच्च शिखर पर है। यहां पढ़ें हरिवंश राय बच्चन की सबसे लोकप्रिय कविता-
-मधुशाला
जलतरंग बजता, जब चुंबन
जलतरंग बजता, जब चुंबन
करता प्याले को प्याला
वीणा झंकृत होती चलती
जब रुनझुन साक़ीबाला
डांट-डपट मधुविक्रेता की
ध्वनित पखावज करती है
मधुरब से मधु की मादकता
और बढ़ाती मधुशाला
हाथों में आने से पहले
हाथों में आने से पहले
नाज़ दिखायेगा प्याला
अधरों पर आने से पहले
अदा दिखायेगी हाला
बहुतेरे इन्कार करेगा
साक़ी आने से पहले
पथिक, न घबरा जाना पहले
मान करेगी मधुशाला
यज्ञ-अग्नि-सी धधक रही है
यज्ञ-अग्नि-सी धधक रही है
मधु की भट्टी की ज्वाला
ऋषि-सा ध्यान लगा बैठा है
हर मदिरा पीने वाला
मुनि-कन्याओं-सी मधुघट ले
फिरतीं साक़ी बालाएं
किसी तपोवन से क्या कम है
मेरी पावन मधुशाला
बार-बार मैंने आगे बढ़...
बार-बार मैंने आगे बढ़
आज नहीं मांगी हाला
समझ न लेना इससे मुझको
साधारण पीनेवाला
हो तो लेने दो ऐ साक़ी
दूर प्रथम संकोचों को
मेरे ही स्वर से फिर सारी
गूंज उठेगी मधुशाला
कर ले कर ले कंजूसी तू
कर ले कर ले कंजूसी तू
मुझको देने में हाला
दे ले, दे ले तू मुझको बस
यह टूटा-फूटा प्याला
मैं तो सब्र इसी पर करता
तू पीछे पछतायेगी
जब न रहूंगा मैं, तब मेरी
याद करेगी मधुशाला
उस प्याले से प्यार मुझे जो
उस प्याले से प्यार मुझे जो
दूर हथेली से प्याला
उस हाला से चाव मुझे जो
दूर अधर-मख से हाला
प्यार नहीं पा जाने में है
पाने के अरमानों में
पा जाता तब, हाय, न इतनी
प्यारी लगती मधुशाला
नहीं चाहता आगे बढ़कर
नहीं चाहता आगे बढ़कर
छीनू औरों का प्याला
नहीं चाहता, धक्के देकर
छीनूं औरों का प्याला
साक़ी मेरी ओर न देखो
मुझको तनिक मलाल नहीं
इतना ही क्या कम आंखों से
देख रहा हूं मधुशाला !
बूंद-बूंद के हेतु कभी
बूंद-बूंद के हेतु कभी
तुझको तरसायेगी हाला
कभी हाथ से छिन जायेगा
तेरा यह मादक प्याला
पीने वाले साक़ी की मीठी
बातों में मत आना
मेरे भी गुण यों ही गाती
एक दिवस थी मधुशाला !
मैं मदिरालय के अंदर हूं
मैं मदिरालय के अंदर हूं
मेरे हाथों में प्याला
प्याले में मदिरालय बिंबित
करने वाली है हाला
इस उधेड़-बुन में ही मेरा
सारा जीवन बीत गया
मैं मदिरालय के अंदर या
मेरे अंदर मधुशाला !
अपने युग में सबको अनुपम
अपने युग में सबको अनुपम
ज्ञात हुई अपनी हाला
अपने युग में सबको अद्भुत
ज्ञात हुआ अपना प्याला
फिर भी वृद्धों से जब पूछा
एक यही उत्तर पाया
अब न रहे वे पीने वाले
अब न रही वह मधुशाला !
परिशिष्ट से
स्वयं नहीं पीता, औरों को, किन्तु पिला देता हाला,
स्वयं नहीं छूता, औरों को, पर पकड़ा देता प्याला,
पर उपदेश कुशल बहुतेरों से मैंने यह सीखा है,
स्वयं नहीं जाता, औरों को पहुंचा देता मधुशाला।
मैं कायस्थ कुलोदभव मेरे पुरखों ने इतना ढ़ाला,
मेरे तन के लोहू में है पचहत्तर प्रतिशत हाला,
पुश्तैनी अधिकार मुझे है मदिरालय के आँगन पर,
मेरे दादों परदादों के हाथ बिकी थी मधुशाला।
बहुतों के सिर चार दिनों तक चढ़कर उतर गई हाला,
बहुतों के हाथों में दो दिन छलक झलक रीता प्याला,
पर बढ़ती तासीर सुरा की साथ समय के, इससे ही
और पुरानी होकर मेरी और नशीली मधुशाला।
पित्र पक्ष में पुत्र उठाना अर्ध्य न कर में, पर प्याला
बैठ कहीं पर जाना, गंगा सागर में भरकर हाला
किसी जगह की मिटटी भीगे, तृप्ति मुझे मिल जाएगी
तर्पण अर्पण करना मुझको, पढ़ पढ़ कर के मधुशाला।
- हरिवंश राय बच्चन
इसी विषय पर 5 महान उर्दू शायरों का नजरिया
1- Mirza Galib :
"शराब पीने दे मस्जिद में बैठ कर,
या वो जगह बता जहाँ ख़ुदा नहीं "
2- Iqbal
"मस्जिद ख़ुदा का घर है, पीने की जगह नहीं,
काफिर के दिल में जा, वहाँ ख़ुदा नहीं।"
3- Ahmad Faraz
"काफिर के दिल से आया हूँ मैं ये देख कर,
खुदा मौजूद है वहाँ, पर उसे पता नहीं।"
4- Wasi
"खुदा तो मौजूद दुनिया में हर जगह है,
तू जन्नत में जा वहाँ पीना मना नहीं।"
5-Saqi
"पीता हूँ ग़म-ए-दुनिया भुलाने के लिए,
जन्नत में कौन सा ग़म है इसलिए वहाँ पीने में मजा नही । "
***सबसे प्रमुख नजरिया
Common man*** :
"ला भाई दारू पिला, बकवास न यूँ बांचो, जहाँ मर्जी वही पिएंगे, भाड़ में जाएँ ये पांचों".....
...राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर...
रामधारी सिंह 'दिनकर' (२३ सितंबर १९०८-२४ अप्रैल१९७४) का जन्म सिमरिया, मुंगेर, बिहार में हुआ था । उन्होंने इतिहास, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान की पढ़ाई पटना विश्वविद्यालय से की । उन्होंने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन किया था । वह एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार थे । उनकी अधिकतर रचनाएँ वीर रस से ओतप्रोत है । उन्हें पद्म विभूषण की उपाधि से भी अलंकृत किया गया। उनकी पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार तथा उर्वशी के लिये भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान किया गया। उनकी काव्य रचनायें : प्रण-भंग , रेणुका, हुंकार, रसवंती, द्वन्द्व गीत, कुरूक्षेत्र, धूपछाँह, सामधेनी, बापू, इतिहास के आँसू, धूप और धुआँ, मिर्च का मज़ा, रश्मिरथी, दिल्ली, नीम के पत्ते, सूरज का ब्याह, नील कुसुम, नये सुभाषित, चक्रवाल, कविश्री, सीपी और शंख, उर्वशी, परशुराम की प्रतीक्षा, कोयला और कवित्व, मृत्तितिलक, आत्मा की आँखें, हारे को हरिनाम, भगवान के डाकिए !
...पुस्तक रश्मिरथी का संक्षिप्त परिचय ...
रश्मिरथी, जिसका अर्थ "सूर्य की सारथी" है, हिन्दी के महान कवि रामधारी सिंह दिनकर द्वारा रचित प्रसिद्ध खण्डकाव्य है। यह १९५२ में प्रकाशित हुआ था। इसमें कुल ७ सर्ग हैं, जिसमे कर्ण के चरित्र के सभी पक्षों का सजीव चित्रण किया गया है। रश्मिरथी में दिनकर ने कर्ण की महाभारतीय कथानक से ऊपर उठाकर उसे नैतिकता और वफादारी की नयी भूमि पर खड़ा कर उसे गौरव से विभूषित कर दिया है। रश्मिरथी में दिनकर ने सारे सामाजिक और पारिवारिक संबंधों को नए सिरे से जाँचा है। चाहे गुरु-शिष्य संबंधें के बहाने हो, चाहे अविवाहित मातृत्व और विवाहित मातृत्व के बहाने हो, चाहे धर्म के बहाने हो, चाहे छल-प्रपंच के बहाने।
युद्ध में भी मनुष्य के ऊँचे गुणों की पहचान के प्रति ललक का काव्य है ‘रश्मिरथी’। ‘रश्मिरथी’ यह भी संदेश देता है कि जन्म-अवैधता से कर्म की वैधता नष्ट नहीं होती। अपने कर्मों से मनुष्य मृत्यु-पूर्व जन्म में ही एक और जन्म ले लेता है। अंततः मूल्यांकन योग्य मनुष्य का मूल्यांकन उसके वंश से नहीं, उसके आचरण और कर्म से ही किया जाना न्यायसंगत है।
रश्मिरथी में स्वयं कर्ण के मुख से निकला है-
..."मैं उनका आदर्श, कहीं जो व्यथा न खोल सकेंगे, ...
...पूछेगा जग, किन्तु, पिता का नाम न बोल सकेंगे, ...
...जिनका निखिल विश्व में कोई कहीं न अपना होगा, ...
...मन में लिये उमंग जिन्हें चिर-काल कलपना होगा।"...
रश्मिरथी पुस्तक के परिचय में दिनकर कहते हैं:
"कर्ण-चरित के उद्धार की चिन्ता इस बात का प्रमाण है कि हमारे समाज में मानवीय गुणों की पहचान बढ़नेवाली है। कुल और जाति का अहंकार विदा हो रहा है। आगे, मनुष्य केवल उसी पद का अधिकारी होगा जो उसके अपने सामर्थ्य से सूचित होता है, उस पद का नहीं, जो उसके माता-पिता या वंश की देन है। इसी प्रकार, व्यक्ति अपने निजी गुणों के कारण जिस पद का अधिकारी है, वह उसे मिलकर रहेगा, यहाँ तक कि उसके माता-पिता के दोष भी इसमें कोई बाधा नहीं डाल सकेंगे। कर्णचरित का उद्धार एक तरह से, नयी मानवता की स्थापना का ही प्रयास है और मुझे सन्तोष है कि इस प्रयास में मैं अकेला नहीं, अपने अनेक सुयोग्य सहधर्मियों के साथ हूँ।
कर्ण का भाग्य, सचमुच, बहुत दिनों के बाद जगा है। यह उसी का परिणाम है कि उसके पार जाने के लिए आज जलयान पर जलयान तैयार हो रहे हैं। जहाजों के इस बड़े बेड़े में मेरी ओर से एक छोटी-सी डोंगी ही सही।"
...तृतीय सर्ग ~ रश्मिरथी ~ रामधारी सिंह 'दिनकर'...
...तृतीय सर्ग...
...1...
...हो गया पूर्ण अज्ञात वास, ...
...पाडंव लौटे वन से सहास, ...
...पावक में कनक-सदृश तप कर, ...
...वीरत्व लिए कुछ और प्रखर, ...
...नस-नस में तेज-प्रवाह लिये, ...
...कुछ और नया उत्साह लिये।...
...तृतीय सर्ग का विडियो देखें...
...सच है, विपत्ति जब आती है, ...
...कायर को ही दहलाती है, ...
...शूरमा नहीं विचलित होते, ...
...क्षण एक नहीं धीरज खोते, ...
...विघ्नों को गले लगाते हैं, ...
...काँटों में राह बनाते हैं। ...
...मुख से न कभी उफ कहते हैं, ...
...संकट का चरण न गहते हैं, ...
...जो आ पड़ता सब सहते हैं, ...
...उद्योग-निरत नित रहते हैं, ...
...शूलों का मूल नसाने को, ...
...बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को। ...
...है कौन विघ्न ऐसा जग में, ...
...टिक सके वीर नर के मग में ...
...खम ठोंक ठेलता है जब नर, ...
...पर्वत के जाते पाँव उखड़। ...
...मानव जब जोर लगाता है, ...
...पत्थर पानी बन जाता है। ...
...गुण बड़े एक से एक प्रखर, ...
...हैं छिपे मानवों के भीतर, ...
...मेंहदी में जैसे लाली हो, ...
...वर्तिका-बीच उजियाली हो। ...
...बत्ती जो नहीं जलाता है ...
...रोशनी नहीं वह पाता है। ...
...पीसा जाता जब इक्षु-दण्ड, ...
...झरती रस की धारा अखण्ड, ...
...मेंहदी जब सहती है प्रहार, ...
...बनती ललनाओं का सिंगार। ...
...जब फूल पिरोये जाते हैं, ...
...हम उनको गले लगाते हैं।...
...वसुधा का नेता कौन हुआ? ...
...भूखण्ड-विजेता कौन हुआ? ...
...अतुलित यश क्रेता कौन हुआ? ...
...नव-धर्म प्रणेता कौन हुआ? ...
...जिसने न कभी आराम किया, ...
...विघ्नों में रहकर नाम किया। ...
...जब विघ्न सामने आते हैं, ...
...सोते से हमें जगाते हैं, ...
...मन को मरोड़ते हैं पल-पल, ...
...तन को झँझोरते हैं पल-पल। ...
...सत्पथ की ओर लगाकर ही, ...
...जाते हैं हमें जगाकर ही। ...
...वाटिका और वन एक नहीं, ...
...आराम और रण एक नहीं। ...
...वर्षा, अंधड़, आतप अखंड, ...
...पौरुष के हैं साधन प्रचण्ड। ...
...वन में प्रसून तो खिलते हैं, ...
...बागों में शाल न मिलते हैं। ...
...कङ्करियाँ जिनकी सेज सुघर, ...
...छाया देता केवल अम्बर, ...
...विपदाएँ दूध पिलाती हैं, ...
...लोरी आँधियाँ सुनाती हैं। ...
...जो लाक्षा-गृह में जलते हैं, ...
...वे ही शूरमा निकलते हैं। ...
...बढ़कर विपत्तियों पर छा जा, ...
...मेरे किशोर! मेरे ताजा! ...
...जीवन का रस छन जाने दे, ...
...तन को पत्थर बन जाने दे। ...
...तू स्वयं तेज भयकारी है, ...
...क्या कर सकती चिनगारी है? ...
...वर्षों तक वन में घूम-घूम, ...
...बाधा-विघ्नों को चूम-चूम, ...
...सह धूप-घाम, पानी-पत्थर, ...
...पांडव आये कुछ और निखर। ...
...सौभाग्य न सब दिन सोता है, ...
...देखें, आगे क्या होता है।...
...मैत्री की राह बताने को, ...
...सबको सुमार्ग पर लाने को, ...
...दुर्योधन को समझाने को, ...
...भीषण विध्वंस बचाने को, ...
...भगवान् हस्तिनापुर आये, ...
...पांडव का संदेशा लाये। ...
...'दो न्याय अगर तो आधा दो, ...
...पर, इसमें भी यदि बाधा हो, ...
...तो दे दो केवल पाँच ग्राम, ...
...रक्खो अपनी धरती तमाम। ...
...हम वहीं खुशी से खायेंगे, ...
...परिजन पर असि न उठायेंगे! ...
...दुर्योधन वह भी दे ना सका, ...
...आशिष समाज की ले न सका, ...
...उलटे, हरि को बाँधने चला, ...
...जो था असाध्य, साधने चला। ...
...जब नाश मनुज पर छाता है, ...
...पहले विवेक मर जाता है। ...
...हरि ने भीषण हुंकार किया, ...
...अपना स्वरूप-विस्तार किया, ...
...डगमग-डगमग दिग्गज डोले, ...
...भगवान् कुपित होकर बोले- ...
...'जंजीर बढ़ा कर साध मुझे, ...
...हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे। ...
...यह देख, गगन मुझमें लय है, ...
...यह देख, पवन मुझमें लय है, ...
...मुझमें विलीन झंकार सकल, ...
...मुझमें लय है संसार सकल। ...
...अमरत्व फूलता है मुझमें, ...
...संहार झूलता है मुझमें। ...
...'उदयाचल मेरा दीप्त भाल, ...
...भूमंडल वक्षस्थल विशाल, ...
...भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं, ...
...मैनाक-मेरु पग मेरे हैं। ...
...दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर, ...
...सब हैं मेरे मुख के अन्दर। ...
...'दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख, ...
...मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख, ...
...चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर, ...
...नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर। ...
...शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र, ...
...शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।...
...'शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश, ...
...शत कोटि विष्णु जलपति, धनेश, ...
...शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल, ...
...शत कोटि दण्डधर लोकपाल। ...
...जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें, ...
...हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें। ...
...'भूलोक, अतल, पाताल देख, ...
...गत और अनागत काल देख, ...
...यह देख जगत का आदि-सृजन, ...
...यह देख, महाभारत का रण, ...
...मृतकों से पटी हुई भू है, ...
...पहचान, कहाँ इसमें तू है। ...
...'अम्बर में कुन्तल-जाल देख, ...
...पद के नीचे पाताल देख, ...
...मुट्ठी में तीनों काल देख, ...
...मेरा स्वरूप विकराल देख। ...
...सब जन्म मुझी से पाते हैं, ...
...फिर लौट मुझी में आते हैं। ...
...'जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन, ...
...साँसों में पाता जन्म पवन, ...
...पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर, ...
...हँसने लगती है सृष्टि उधर! ...
...मैं जभी मूँदता हूँ लोचन, ...
...छा जाता चारों ओर मरण। ...
...'बाँधने मुझे तो आया है, ...
...जंजीर बड़ी क्या लाया है? ...
...यदि मुझे बाँधना चाहे मन, ...
...पहले तो बाँध अनन्त गगन। ...
...सूने को साध न सकता है, ...
...वह मुझे बाँध कब सकता है? ...
...'हित-वचन नहीं तूने माना, ...
...मैत्री का मूल्य न पहचाना, ...
...तो ले, मैं भी अब जाता हूँ, ...
...अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ। ...
...याचना नहीं, अब रण होगा, ...
...जीवन-जय या कि मरण होगा। ...
...'टकरायेंगे नक्षत्र-निकर, ...
...बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर, ...
...फण शेषनाग का डोलेगा, ...
...विकराल काल मुँह खोलेगा। ...
...दुर्योधन! रण ऐसा होगा। ...
...फिर कभी नहीं जैसा होगा। ...
...'भाई पर भाई टूटेंगे, ...
...विष-बाण बूँद-से छूटेंगे, ...
...वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे, ...
...सौभाग्य मनुज के फूटेंगे। ...
...आखिर तू भूशायी होगा, ...
...हिंसा का पर, दायी होगा।' ...
...थी सभा सन्न, सब लोग डरे, ...
...चुप थे या थे बेहोश पड़े। ...
...केवल दो नर ना अघाते थे, ...
...धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे। ...
...कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय, ...
...दोनों पुकारते थे 'जय-जय'!...
...2...
...भगवान सभा को छोड़ चले, ...
...करके रण गर्जन घोर चले ...
...सामने कर्ण सकुचाया सा, ...
...आ मिला चकित भरमाया सा ...
...हरि बड़े प्रेम से कर धर कर, ...
...ले चढ़े उसे अपने रथ पर। ...
...रथ चला परस्पर बात चली, ...
...शम-दम की टेढी घात चली, ...
...शीतल हो हरि ने कहा, "हाय, ...
...अब शेष नही कोई उपाय ...
...हो विवश हमें धनु धरना है, ...
...क्षत्रिय समूह को मरना है। ...
..."मैंने कितना कुछ कहा नहीं? ...
...विष-व्यंग कहाँ तक सहा नहीं? ...
...पर, दुर्योधन मतवाला है, ...
...कुछ नहीं समझने वाला है ...
...चाहिए उसे बस रण केवल, ...
...सारी धरती कि मरण केवल ...
..."हे वीर ! तुम्हीं बोलो अकाम, ...
...क्या वस्तु बड़ी थी पाँच ग्राम? ...
...वह भी कौरव को भारी है, ...
...मति गई मूढ़ की मरी है ...
...दुर्योधन को बोधूं कैसे? ...
...इस रण को अवरोधूं कैसे? ...
..."सोचो क्या दृश्य विकट होगा, ...
...रण में जब काल प्रकट होगा? ...
...बाहर शोणित की तप्त धार, ...
...भीतर विधवाओं की पुकार ...
...निरशन, विषण्ण बिल्लायेंगे, ...
...बच्चे अनाथ चिल्लायेंगे। ...
..."चिंता है, मैं क्या और करूं? ...
...शान्ति को छिपा किस ओट धरूँ? ...
...सब राह बंद मेरे जाने, ...
...हाँ एक बात यदि तू माने, ...
...तो शान्ति नहीं जल सकती है, ...
...समराग्नि अभी तल सकती है। ...
..."पा तुझे धन्य है दुर्योधन, ...
...तू एकमात्र उसका जीवन ...
...तेरे बल की है आस उसे, ...
...तुझसे जय का विश्वास उसे ...
...तू संग न उसका छोडेगा, ...
...वह क्यों रण से मुख मोड़ेगा? ...
..."क्या अघटनीय घटना कराल? ...
...तू पृथा-कुक्षी का प्रथम लाल, ...
...बन सूत अनादर सहता है, ...
...कौरव के दल में रहता है, ...
...शर-चाप उठाये आठ प्रहार, ...
...पांडव से लड़ने हो तत्पर। ...
..."माँ का सनेह पाया न कभी, ...
...सामने सत्य आया न कभी, ...
...किस्मत के फेरे में पड़ कर, ...
...पा प्रेम बसा दुश्मन के घर ...
...निज बंधू मानता है पर को, ...
...कहता है शत्रु सहोदर को। ...
..."पर कौन दोष इसमें तेरा? ...
...अब कहा मान इतना मेरा ...
...चल होकर संग अभी मेरे, ...
...है जहाँ पाँच भ्राता तेरे ...
...बिछुड़े भाई मिल जायेंगे, ...
...हम मिलकर मोद मनाएंगे। ...
..."कुन्ती का तू ही तनय ज्येष्ठ, ...
...बल बुद्धि, शील में परम श्रेष्ठ ...
...मस्तक पर मुकुट धरेंगे हम, ...
...तेरा अभिषेक करेंगे हम ...
...आरती समोद उतारेंगे, ...
...सब मिलकर पाँव पखारेंगे। ...
..."पद-त्राण भीम पहनायेगा, ...
...धर्माचिप चंवर डुलायेगा ...
...पहरे पर पार्थ प्रवर होंगे, ...
...सहदेव-नकुल अनुचर होंगे ...
...भोजन उत्तरा बनायेगी, ...
...पांचाली पान खिलायेगी ...
..."आहा ! क्या दृश्य सुभग होगा ! ...
...आनंद-चमत्कृत जग होगा ...
...सब लोग तुझे पहचानेंगे, ...
...असली स्वरूप में जानेंगे ...
...खोयी मणि को जब पायेगी, ...
...कुन्ती फूली न समायेगी। ...
..."रण अनायास रुक जायेगा, ...
...कुरुराज स्वयं झुक जायेगा ...
...संसार बड़े सुख में होगा, ...
...कोई न कहीं दुःख में होगा ...
...सब गीत खुशी के गायेंगे, ...
...तेरा सौभाग्य मनाएंगे। ...
..."कुरुराज्य समर्पण करता हूँ, ...
...साम्राज्य समर्पण करता हूँ ...
...यश मुकुट मान सिंहासन ले, ...
...बस एक भीख मुझको दे दे ...
...कौरव को तज रण रोक सखे, ...
...भू का हर भावी शोक सखे ...
...सुन-सुन कर कर्ण अधीर हुआ, ...
...क्षण एक तनिक गंभीर हुआ, ...
...फिर कहा "बड़ी यह माया है, ...
...जो कुछ आपने बताया है ...
...दिनमणि से सुनकर वही कथा ...
...मैं भोग चुका हूँ ग्लानि व्यथा ...
..."जब ध्यान जन्म का धरता हूँ, ...
...उन्मन यह सोचा करता हूँ, ...
...कैसी होगी वह माँ कराल, ...
...निज तन से जो शिशु को निकाल ...
...धाराओं में धर आती है, ...
...अथवा जीवित दफनाती है? ...
..."सेवती मास दस तक जिसको, ...
...पालती उदर में रख जिसको, ...
...जीवन का अंश खिलाती है, ...
...अन्तर का रुधिर पिलाती है ...
...आती फिर उसको फ़ेंक कहीं, ...
...नागिन होगी वह नारि नहीं। ...
..."हे कृष्ण आप चुप ही रहिये, ...
...इस पर न अधिक कुछ भी कहिये ...
...सुनना न चाहते तनिक श्रवण, ...
...जिस माँ ने मेरा किया जनन ...
...वह नहीं नारि कुल्पाली थी, ...
...सर्पिणी परम विकराली थी ...
..."पत्थर समान उसका हिय था, ...
...सुत से समाज बढ़ कर प्रिय था ...
...गोदी में आग लगा कर के, ...
...मेरा कुल-वंश छिपा कर के ...
...दुश्मन का उसने काम किया, ...
...माताओं को बदनाम किया ...
..."माँ का पय भी न पीया मैंने, ...
...उलटे अभिशाप लिया मैंने ...
...वह तो यशस्विनी बनी रही, ...
...सबकी भौ मुझ पर तनी रही ...
...कन्या वह रही अपरिणीता, ...
...जो कुछ बीता, मुझ पर बीता ...
..."मैं जाती गोत्र से दीन, हीन, ...
...राजाओं के सम्मुख मलीन, ...
...जब रोज अनादर पाता था, ...
...कह 'शूद्र' पुकारा जाता था ...
...पत्थर की छाती फटी नही, ...
...कुन्ती तब भी तो कटी नहीं ...
..."मैं सूत-वंश में पलता था, ...
...अपमान अनल में जलता था, ...
...सब देख रही थी दृश्य पृथा, ...
...माँ की ममता पर हुई वृथा ...
...छिप कर भी तो सुधि ले न सकी ...
...छाया अंचल की दे न सकी ...
..."पा पाँच तनय फूली-फूली, ...
...दिन-रात बड़े सुख में भूली ...
...कुन्ती गौरव में चूर रही, ...
...मुझ पतित पुत्र से दूर रही ...
...क्या हुआ की अब अकुलाती है? ...
...किस कारण मुझे बुलाती है? ...
..."क्या पाँच पुत्र हो जाने पर, ...
...सुत के धन धाम गंवाने पर ...
...या महानाश के छाने पर, ...
...अथवा मन के घबराने पर ...
...नारियाँ सदय हो जाती हैं ...
...बिछुडोँ को गले लगाती है? ...
..."कुन्ती जिस भय से भरी रही, ...
...तज मुझे दूर हट खड़ी रही ...
...वह पाप अभी भी है मुझमें, ...
...वह शाप अभी भी है मुझमें ...
...क्या हुआ की वह डर जायेगा? ...
...कुन्ती को काट न खायेगा? ...
..."सहसा क्या हाल विचित्र हुआ, ...
...मैं कैसे पुण्य-चरित्र हुआ? ...
...कुन्ती का क्या चाहता ह्रदय, ...
...मेरा सुख या पांडव की जय? ...
...यह अभिनन्दन नूतन क्या है? ...
...केशव! यह परिवर्तन क्या है? ...
..."मैं हुआ धनुर्धर जब नामी, ...
...सब लोग हुए हित के कामी ...
...पर ऐसा भी था एक समय, ...
...जब यह समाज निष्ठुर निर्दय ...
...किंचित न स्नेह दर्शाता था, ...
...विष-व्यंग सदा बरसाता था ...
..."उस समय सुअंक लगा कर के, ...
...अंचल के तले छिपा कर के ...
...चुम्बन से कौन मुझे भर कर, ...
...ताड़ना-ताप लेती थी हर? ...
...राधा को छोड़ भजूं किसको, ...
...जननी है वही, तजूं किसको? ...
..."हे कृष्ण ! ज़रा यह भी सुनिए, ...
...सच है की झूठ मन में गुनिये ...
...धूलों में मैं था पडा हुआ, ...
...किसका सनेह पा बड़ा हुआ? ...
...किसने मुझको सम्मान दिया, ...
...नृपता दे महिमावान किया? ...
..."अपना विकास अवरुद्ध देख, ...
...सारे समाज को क्रुद्ध देख ...
...भीतर जब टूट चुका था मन, ...
...आ गया अचानक दुर्योधन ...
...निश्छल पवित्र अनुराग लिए, ...
...मेरा समस्त सौभाग्य लिए ...
..."कुन्ती ने केवल जन्म दिया, ...
...राधा ने माँ का कर्म किया ...
...पर कहते जिसे असल जीवन, ...
...देने आया वह दुर्योधन ...
...वह नहीं भिन्न माता से है ...
...बढ़ कर सोदर भ्राता से है ...
..."राजा रंक से बना कर के, ...
...यश, मान, मुकुट पहना कर के ...
...बांहों में मुझे उठा कर के, ...
...सामने जगत के ला करके ...
...करतब क्या क्या न किया उसने ...
...मुझको नव-जन्म दिया उसने ...
..."है ऋणी कर्ण का रोम-रोम, ...
...जानते सत्य यह सूर्य-सोम ...
...तन मन धन दुर्योधन का है, ...
...यह जीवन दुर्योधन का है ...
...सुर पुर से भी मुख मोडूँगा, ...
...केशव ! मैं उसे न छोडूंगा ...
..."सच है मेरी है आस उसे, ...
...मुझ पर अटूट विश्वास उसे ...
...हाँ सच है मेरे ही बल पर, ...
...ठाना है उसने महासमर ...
...पर मैं कैसा पापी हूँगा? ...
...दुर्योधन को धोखा दूँगा? ...
..."रह साथ सदा खेला खाया, ...
...सौभाग्य-सुयश उससे पाया ...
...अब जब विपत्ति आने को है, ...
...घनघोर प्रलय छाने को है ...
...तज उसे भाग यदि जाऊंगा ...
...कायर, कृतघ्न कहलाऊँगा ...
..."मैं भी कुन्ती का एक तनय, ...
...जिसको होगा इसका प्रत्यय ...
...संसार मुझे धिक्कारेगा, ...
...मन में वह यही विचारेगा ...
...फिर गया तुरत जब राज्य मिला, ...
...यह कर्ण बड़ा पापी निकला ...
..."मैं ही न सहूंगा विषम डंक, ...
...अर्जुन पर भी होगा कलंक ...
...सब लोग कहेंगे डर कर ही, ...
...अर्जुन ने अद्भुत नीति गही ...
...चल चाल कर्ण को फोड़ लिया ...
...सम्बन्ध अनोखा जोड़ लिया ...
..."कोई भी कहीं न चूकेगा, ...
...सारा जग मुझ पर थूकेगा ...
...तप त्याग शील, जप योग दान, ...
...मेरे होंगे मिट्टी समान ...
...लोभी लालची कहाऊँगा ...
...किसको क्या मुख दिखलाऊँगा? ...
..."जो आज आप कह रहे आर्य, ...
...कुन्ती के मुख से कृपाचार्य ...
...सुन वही हुए लज्जित होते, ...
...हम क्यों रण को सज्जित होते ...
...मिलता न कर्ण दुर्योधन को, ...
...पांडव न कभी जाते वन को ...
..."लेकिन नौका तट छोड़ चली, ...
...कुछ पता नहीं किस ओर चली ...
...यह बीच नदी की धारा है, ...
...सूझता न कूल-किनारा है ...
...ले लील भले यह धार मुझे, ...
...लौटना नहीं स्वीकार मुझे ...
..."धर्माधिराज का ज्येष्ठ बनूँ, ...
...भारत में सबसे श्रेष्ठ बनूँ? ...
...कुल की पोशाक पहन कर के, ...
...सिर उठा चलूँ कुछ तन कर के? ...
...इस झूठ-मूठ में रस क्या है? ...
...केशव ! यह सुयश - सुयश क्या है? ...
..."सिर पर कुलीनता का टीका, ...
...भीतर जीवन का रस फीका ...
...अपना न नाम जो ले सकते, ...
...परिचय न तेज से दे सकते ...
...ऐसे भी कुछ नर होते हैं ...
...कुल को खाते औ' खोते हैं...
..."विक्रमी पुरुष लेकिन सिर पर, ...
...चलता ना छत्र पुरखों का धर। ...
...अपना बल-तेज जगाता है, ...
...सम्मान जगत से पाता है। ...
...सब देख उसे ललचाते हैं, ...
...कर विविध यत्न अपनाते हैं ...
..."कुल-जाति नही साधन मेरा, ...
...पुरुषार्थ एक बस धन मेरा। ...
...कुल ने तो मुझको फेंक दिया, ...
...मैने हिम्मत से काम लिया ...
...अब वंश चकित भरमाया है, ...
...खुद मुझे ढूँडने आया है। ...
..."लेकिन मैं लौट चलूँगा क्या? ...
...अपने प्रण से विचरूँगा क्या? ...
...रण मे कुरूपति का विजय वरण, ...
...या पार्थ हाथ कर्ण का मरण, ...
...हे कृष्ण यही मति मेरी है, ...
...तीसरी नही गति मेरी है। ...
..."मैत्री की बड़ी सुखद छाया, ...
...शीतल हो जाती है काया, ...
...धिक्कार-योग्य होगा वह नर, ...
...जो पाकर भी ऐसा तरुवर, ...
...हो अलग खड़ा कटवाता है ...
...खुद आप नहीं कट जाता है। ...
..."जिस नर की बाह गही मैने, ...
...जिस तरु की छाँह गहि मैने, ...
...उस पर न वार चलने दूँगा, ...
...कैसे कुठार चलने दूँगा, ...
...जीते जी उसे बचाऊँगा, ...
...या आप स्वयं कट जाऊँगा, ...
..."मित्रता बड़ा अनमोल रतन, ...
...कब उसे तोल सकता है धन? ...
...धरती की तो है क्या बिसात? ...
...आ जाय अगर बैकुंठ हाथ। ...
...उसको भी न्योछावर कर दूँ, ...
...कुरूपति के चरणों में धर दूँ। ...
..."सिर लिए स्कंध पर चलता हूँ, ...
...उस दिन के लिए मचलता हूँ, ...
...यदि चले वज्र दुर्योधन पर, ...
...ले लूँ बढ़कर अपने ऊपर। ...
...कटवा दूँ उसके लिए गला, ...
...चाहिए मुझे क्या और भला? ...
..."सम्राट बनेंगे धर्मराज, ...
...या पाएगा कुरूरज ताज, ...
...लड़ना भर मेरा कम रहा, ...
...दुर्योधन का संग्राम रहा, ...
...मुझको न कहीं कुछ पाना है, ...
...केवल ऋण मात्र चुकाना है। ...
..."कुरूराज्य चाहता मैं कब हूँ? ...
...साम्राज्य चाहता मैं कब हूँ? ...
...क्या नहीं आपने भी जाना? ...
...मुझको न आज तक पहचाना? ...
...जीवन का मूल्य समझता हूँ, ...
...धन को मैं धूल समझता हूँ। ...
..."धनराशि जोगना लक्ष्य नहीं, ...
...साम्राज्य भोगना लक्ष्य नहीं। ...
...भुजबल से कर संसार विजय, ...
...अगणित समृद्धियों का सन्चय, ...
...दे दिया मित्र दुर्योधन को, ...
...तृष्णा छू भी ना सकी मन को। ...
..."वैभव विलास की चाह नहीं, ...
...अपनी कोई परवाह नहीं, ...
...बस यही चाहता हूँ केवल, ...
...दान की देव सरिता निर्मल, ...
...करतल से झरती रहे सदा, ...
...निर्धन को भरती रहे सदा।...
..."तुच्छ है, राज्य क्या है केशव? ...
...पाता क्या नर कर प्राप्त विभव? ...
...चिंता प्रभूत, अत्यल्प हास, ...
...कुछ चाकचिक्य, कुछ पल विलास, ...
...पर वह भी यहीं गवाना है, ...
...कुछ साथ नही ले जाना है। ...
..."मुझसे मनुष्य जो होते हैं, ...
...कंचन का भार न ढोते हैं, ...
...पाते हैं धन बिखराने को, ...
...लाते हैं रतन लुटाने को, ...
...जग से न कभी कुछ लेते हैं, ...
...दान ही हृदय का देते हैं। ...
..."प्रासादों के कनकाभ शिखर, ...
...होते कबूतरों के ही घर, ...
...महलों में गरुड़ ना होता है, ...
...कंचन पर कभी न सोता है। ...
...रहता वह कहीं पहाड़ों में, ...
...शैलों की फटी दरारों में। ...
..."होकर सुख-समृद्धि के अधीन, ...
...मानव होता निज तप क्षीण, ...
...सत्ता किरीट मणिमय आसन, ...
...करते मनुष्य का तेज हरण। ...
...नर विभव हेतु लालचाता है, ...
...पर वही मनुज को खाता है। ...
..."चाँदनी पुष्प-छाया मे पल, ...
...नर भले बने सुमधुर कोमल, ...
...पर अमृत क्लेश का पिए बिना, ...
...आताप अंधड़ में जिए बिना, ...
...वह पुरुष नही कहला सकता, ...
...विघ्नों को नही हिला सकता। ...
..."उड़ते जो झंझावतों में, ...
...पीते सो वारी प्रपातो में, ...
...सारा आकाश अयन जिनका, ...
...विषधर भुजंग भोजन जिनका, ...
...वे ही फानिबंध छुड़ाते हैं, ...
...धरती का हृदय जुड़ाते हैं। ...
..."मैं गरुड़ कृष्ण मै पक्षिराज, ...
...सिर पर ना चाहिए मुझे ताज। ...
...दुर्योधन पर है विपद घोर, ...
...सकता न किसी विधि उसे छोड़, ...
...रण-खेत पाटना है मुझको, ...
...अहिपाश काटना है मुझको। ...
..."संग्राम सिंधु लहराता है, ...
...सामने प्रलय घहराता है, ...
...रह रह कर भुजा फड़कती है, ...
...बिजली-सी नसें कड़कतीं हैं, ...
...चाहता तुरत मैं कूद पडू, ...
...जीतूं की समर मे डूब मरूं। ...
..."अब देर नही कीजै केशव, ...
...अवसेर नही कीजै केशव। ...
...धनु की डोरी तन जाने दें, ...
...संग्राम तुरत ठन जाने दें, ...
...तांडवी तेज लहराएगा, ...
...संसार ज्योति कुछ पाएगा। ...
..."पर, एक विनय है मधुसूदन, ...
...मेरी यह जन्मकथा गोपन, ...
...मत कभी युधिष्ठिर से कहिए, ...
...जैसे हो इसे छिपा रहिए, ...
...वे इसे जान यदि पाएँगे, ...
...सिंहासन को ठुकराएँगे। ...
..."साम्राज्य न कभी स्वयं लेंगे, ...
...सारी संपत्ति मुझे देंगे। ...
...मैं भी ना उसे रख पाऊँगा, ...
...दुर्योधन को दे जाऊँगा। ...
...पांडव वंचित रह जाएँगे, ...
...दुख से न छूट वे पाएँगे। ...
..."अच्छा अब चला प्रणाम आर्य, ...
...हो सिद्ध समर के शीघ्र कार्य। ...
...रण मे ही अब दर्शन होंगे, ...
...शार से चरण:स्पर्शन होंगे। ...
...जय हो दिनेश नभ में विहरें, ...
...भूतल मे दिव्य प्रकाश भरें।" ...
...रथ से राधेय उतार आया, ...
...हरि के मन मे विस्मय छाया, ...
...बोले कि "वीर शत बार धन्य, ...
...तुझसा न मित्र कोई अनन्य, ...
...तू कुरूपति का ही नही प्राण, ...
...नरता का है भूषण महान...
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