कुछ साल पहले"पापा, मेरी कोई सहेली नहीं जा रही।" मैं जैसे ही कहा वैसे माया बोली, "पर मैं तो जा रही हूं और मेरी क्लास में बता रहे थे कि वहां देखने लायक बहुत चीजें हैं।" कहने को माया मुझसे एक साल छोटी थी पर वो अच्छे से जानती थी। कब क्या बोलना है और क्या नहीं। हालांकि मैंने उसको घूर कर देखा पर तब तक देर हो चुकी थी। पापा ने अपना फैसला सुना दिया, "अगर तुम जाओगी तो दोनों जाओगी साथ में वरना कोई नहीं।" माया ने मेरी तरफ देखा पर कुछ नहीं कहा। जरूर उसके दिमाग में कुछ चल रहा था पर 'मेरे को क्या लेना' सोच मैं अपने काम में लग गयी। सोने का समय हो गया था इसलिए मैं जल्दी जल्दी अपना होमवर्क कर रही थी तभी माया मम्मी के साथ आयी और बोली, "मम्मी, इसको समझो ना, चलने के लिए। मेरी सारी सहेलियां जा रही हैं। अगर मैं नहीं जाउंगी तो वो बुरा मान जाएगी।""पर मेरी कोई भी सहेली नहीं जा रही। मैं अकेली वहां बोर हो जाऊंगी।" मैंने तुनकर कहा।"पर मैं तो जा रही हूं। तू बोर नहीं होगी। मेरा जाने का बहुत मन है।" इतने में मम्मी बोली, "निशा, जब उसका मन है तो तू साथ में क्यो नही चली जाती। वैसे भी तू अपने पापा को जानती है वो अकेले इसको जाने नहीं देंगे।" "पर..... " इससे पहले मैं कुछ कह पाती, माया बोली, "प्लीज चल ना... प्लीज।" और मैंने हां बोल दी। पाता नहीं मेरे को मना करने की आदत कब पड़ेगी। मेरी हां सुनकर माया खुश होती हुई चली गई। उसकी खुशी देखकर मैं भी मुस्कुरा दी।पिकनिक वाले दिन, हम बस के सामने खड़े थे। मैं माया को ढूंढ रही थी पर वो अपनी सहेलियों के साथ बस में चढ़ गई। मैं जानती थी यही होने वाला था फिर भी पता नहीं क्यो मुझे बुरा लगा। मैंने लंबी सांस ली और बस मैं चढ़ गई। मेरी एक क्लासमेट ने मेरे को आवाज दी, "निशा"। मैं मुस्कुराई और बोली, "थैंक्स दिपा।" वो मुस्कुराई और पूछा, "बाकी कहां है? तू अकेली क्यो है?" मैं मुंह बनाते हुए बोली, "कोई नहीं आ रहा।" वो बोली, "मेरी तो सारी सहेलियां अपनी फैमिली के साथ हर साल जाती है तो कोई नहीं आई।" हम दोनों आपस में ही बात कर रहे थे कि बस चल दी। कुछ देर बाद, बस में अन्ताशरी शुरू हो गई तो दो घंटे का सफर अब तय हो गया पता ही नहीं चला।जैसे ही हम हस्तिनापुर पहूऺचे, मैडम ने बताना शुरू कर दिया कि क्या करना है करता नहीं। पर हम सबको उतरने की जल्दी थी। जब बस के अंदर से इतना सुन्दर लग रहा है तो बाहर से कितना सुन्दर होगा। सुन्दरता देखने लायक थी। वैसे भी अब तक मेरा गुस्सा भी चला गया था। और स्कूल के बच्चे भी थे। टीचर ने हमको घूमने के लिए अकेला छोड़ दिया पर हिदायत दी थी कि इधर उधर ना जाए। पहले हमें टावर पर चढना था। लेकिन भीड़ की वजह से घक्का मुक्की हो रही थी। जैसे तैसे करके ऊपर चढे़। ऊपर कुछ नहीं था पर ऊपर से नीचे का नज़ारा अच्छा था। अब नीचे उतरे। नीचे उतरने के बाद मन्दिर गये। मैं दिपा के साथ ही थी। सब कुछ देखने के बाद लन्च किया। मैंने अपनी कलाई में बंधी घड़ी को देखा अभी डेढ़ घंटा ही हुआ था। मैंने दीपा से कहा, "अभी चार घंटे तो और है। क्या करें?"दीपा ने उदास होकर बताया, "सब कुछ तो देख लिया। दुबारा देखें क्या?""नहीं यार मेरा तो मन नहीं है।" "पर मैं तो जा रही हूं।" मैंने हां कर दी और वो चली गई। थोड़ी देर बाद माया की एक क्लासमेट आकर बोली, "दीदी, माया आपको ढूंढ रही है।" "कहां है वो?" मैं अपनी डेंस झाडती हुई बोली।मैंने उसके बताए रास्ते पर गई तो कुछ दूर माया दिखाई दी। माया मेरे तरफ आते हुए बोली, "कुछ पैसे हैं क्या तेरे पास?" "पापा ने तुझे भी तो दिए थे।" मैंने गुस्से से बोला।"हां तो खत्म हो गए। अब मेरी सारी सहेलियां कुछ ना कुछ खरीद रही है तो मैं क्या करूं?" वो रूआंसी होते हुए बोली।मैंने अपने बैग में से पैसे निकाल कर उसे देते हुए बोला, "रो मत, ये ले। इससे ज्यादा नहीं है मेरे पास।" उसने मेरे हाथ से पैसे लिए और चली गई। अब मैंने चारो तरफ देखा कि क्या करना चाहिए क्या नहीं? फिर एक पत्थर पर बैठ गई और काॅपी निकाल कर कुछ बनाने लगी।कुछ देर बाद, मैंने किसी की आवाज सुनी, "क्या मैं यहां बैठ सकता हूं?"मैंने मुंह उठाकर देखा तो और साथ में आए स्कूल का लड़का था। पत्थर पर काफी जगह थी तो मैंने हां कर दी।वो थैंक्स कहता हुआ बैठ गया। "तुम्हारी डाइंग तो अच्छी है।""सच्ची?" मैंने उत्सुकतावश पूछा।"मुच्ची" वो हंसते हुए बोला। मुझे भी हंसी आ गई।"कौन सी क्लास में हो?" उसने पूछा। हमने यूनिफॉर्म पहन रखी थी इसलिए स्कूल का पता था।"८थ में और तुम?" मैंने पूछा।वो मुस्कुरा कर बोला, "तुम से सीनियर ११वी में।""ओह।" मैं अपनी डाइंग में लग गईं। "तो...." इससे पहले वो कुछ बोलता मै बोल पड़ी, "मेरी बहन और क्लासमेट सब यहां है। अगर उन्होंने तुमको मेरे से बात करते हुए देख लिया तो दिक्कत हो जाएगी।" "हम्म ये भी है। मेरे को एक जगह पता है जहां से हम सबको देख सकते हैं पर कोई हमें नहीं।" वैसे तो मैं मना करने वाली थी पर पता नहीं क्यों हां बोल दिया।
हम टावर के ऊपर गये। अब वहां कोई नहीं था।"तो तुमको डाइंग में इन्टैस्ट है तो आर्ट लोगी?" उसने पूछा।"नहीं, थोड़ा बहुत ही आता है। कामर्स लूंगी। तुम्हारे पास क्या है?" "साइंस" "हम्म.... इसका मतलब पढ़ाई में अच्छे हो।" मैंने आंखें बड़ी करते हुए बोला।वो हंसते हुए बोला, "ऐसा कह सकती हो तुम।" "इसमें कहने की क्या बात है? मैं तो साइंस लेने का सोच भी नहीं सकती।" "क्यो?" उसने चौंक कर पूछा।"कौन पढ़ेगा इतना?" "कोई नहीं..... मैं तुम्हारी हैल्प कर दूंगा....." वो मुस्कुराते हुए बोला।"पर पढ़ना तो मुझे पड़ेगा।" "हां वो तो है।" उसके साथ समय का पता ही नहीं चला। उसने जाते हुए बोला, "मैं तुम्हें खत लिखूंगा। १५ तारीख को पोस्ट आफिस में जा कर देखना।" मुझे पता था वो नहीं लिखेगा। और वैसे भी वो मुझे खत क्यो लिखेगा?
हालांकि मैं जानती थी फिर भी ना जाने क्यों मैं उस दिन घर से बहाना बनाकर निकल गई कि स्टेशनरी लेने जा रही हूं। और सीधे पोस्ट आफिस चली गई। पोस्ट आफिस के बाहर जाकर दुबारा सोचा कि अन्दर जाऊं कि नहीं। फिर दिमाग में आया कि जाकर देखने में क्या जाता है? अन्दर जाकर पोस्ट मास्टर से जाकर बोली, "अंकल..... कोई खत आया है.... निशा के नाम का.... वेन्दात दिल्ली से"...पहले तो उन्होंने मेरे तरफ ऐसे देखा जैसे मैंने कोई गुनाह कर दिया हो फिर बोले, "देखता हूं।" और रजिस्टर में देखने लग गए। इधर मेरा दिल तेजी से धड़कने लगा। मन तो कह रहा था कि आया होगा जबकि दिमाग मना कर रहा था। इसी उधेड़बुन में थी कि पोस्ट मास्टर अंकल ने आवाज दी, "ये लो खत।" मैं खत लेकर पोस्ट आफिस के बाहर तो आ गई लेकिन अभी तक यकिन नहीं हुआ था कि ये हकीकत है कि नहीं। लग रहा था कि सपना देख रही हूं और जल्द ही सपना टूट जाएगा। इसलिए खुद को ही हल्का सा मारा और कहारते हुए अपने हाथ में लिए हुए ख़त को देखते हुए बड़बड़ाई, "ये सपना नहीं है।" तभी ध्यान आया कि अब घर जाना चाहिए नहीं तो मम्मी पूछेगी कि इतनी देर कहां लगा दी। स्टेशनरी की दुकान से रजिस्टर और पेन खरीदा और रजिस्टर में ही वो ख़त छुपा दिया। घर पर आकर रजिस्टर भी स्कूल बैग में रख दिया। ऐसा लग रहा था कि कोई जंग लड रही हूं। अभी तो शुरुआत थी। अभी तो खत पढ़ कर उसको छुपाने से लेकर ज़बाब देना भी था। पूरा दिन ये सोचते हुए गुजरा कि कब और कहां पढूं? अब मुसीबत तो सर ले ली थी कर भी क्या सकती थी?
पूरा दिन यही सोचने में निकल गया कि अब खत कहां और कैसे पढ़ा जाए। रात को खाना खाने के बाद मम्मी को बोल दिया, "मम्मी, मैं छत पर जा रही हूं पढ़ने के लिए।" तभी माया बोली, "क्यों? नीचे पढ़ने में क्या दिक्कत हैं?" मैंने चिढ़ाते हुए बोला, "तू..... तू मुझे पढ़ने नहीं देती.... कभी ये बता... कभी वो। और वैसे भी कर मुझको मैथ्स की कापी सबमिट करनी है। मम्मी, इसको बोलो मेरे को डिस्टर्ब ना करें।"मम्मी उसको डांटते हुए बोली, "तू उसको डिस्टर्ब नहीं करेंगी वरना तेरी शिकायत तेरे पापा से कर दूंगी।"वो तुनकर बोली, "मैं कौन सा इसको हर समय डिस्टर्ब करती हूं? वो तो जब कुछ समझ नहीं आता तभी पूछती हूं।"उसकी बातों को नजरंदाज करते हुए, मैंने मम्मी से पूछा, "मम्मी, मैं जाऊं छत पर पढ़ने के लिए। "
मम्मी के हामी भरते ही मैं फटाफट से छत पर आ गई। छत की लाइट ऑन करके, दरवाजा बंद किया जिससे कोई आ ना जाए और फोल्डिग पलंग पर अपना समान रखा और आराम से बैठ गई। फिर खत खोला और पढ़ा, "हैल्लो, कैसी हो? जब से वापस आया हूं। यही सोच रहा हूं कि क्या लिखूं? और बताओ क्या क्या किया पिछले दिनों? अपनी पसंद और नापसंद बताना। कोई अपनी बनाई हुई डाइंग भेजना। मुझे खत जरूर लिखना। मैं इन्तज़ार करूंगा और दूसरे खत का इंतजार करना। " और भी बहुत कुछ लिखा था उसने अपने बारे में। मुझको भी उसको खत लिखना था पर समझ नहीं आ रहा था कि क्या लिखूं? इसलिए उसके ही खत का जवाब दिया। उसके खत को अपनी कापी के कवर के अन्दर छुपा कर कवर अच्छे से चिपका दिया जिससे वो ख़त किसी और के हाथ ना लगे। अगले दिन खत पोस्ट बाक्स में डाल दिया। ठीक अगले महीने फिर उसका खत आया। अब तो हर महीने उसके खत आने लगे। खतों के जरिए ही एक दूसरे को जानने लगे।
यही सिलसिला चार साल तक जारी रहा। उसका ग्रेजुएशन कम्पलीत होने वाला था, उधर मेरा ११थ।
माया और मैं पढ़ाई कर रहे थे कि माया ने पूछा, "तूझे ब्यूटी पार्लर का कोर्स सिखना था ना?"मैं बोली, "हा, क्यो? वैसे भी तू पढ़ाई पर ध्यान दें तेरे बोर्ड के एक्जाम है अबकी बार।" "हां, वो तो है। वैसे तेरा ब्यूटी पार्लर का कोर्स करने का मन है तो मेरी फ्रेन्ड की मम्मी तुझको सीखा देगी। उनको हेल्पर की जरूरत है तो बदले में तू उनकी हेल्प कर देना। कहे तो मैं पापा से बात करूं।" वो बोली।मैंने मुंह बनाते हुए बोला, "हां वैसे भी पापा तेरी तो सुनते हैं।" वो हंसते हुए बोली, "हां वो तो है।" उसने पापा से बात की और पापा मान गए। अब काॅलिज से आने के बाद में ब्यूटी पार्लर के कोर्स के लिए भी जाने लगी। इसी वजह से थोड़ा बिजी हो गई। जब कोर्स कम्लीट हो गया तो आन्टी बोली, "निशा, तेरे हाथ में सफाई है और मुझे हेल्पर की भी जरूरत है। काॅलिज के बाद मेरी हेल्प कर दिया कर।" "आन्टी, मैं मम्मी पापा से पूछ कर बताऊंगी।" मैंने कहा।"तू कहे तो मैं तेरी मम्मी से बात करूं क्या?" उन्होंने पूछा।"पहले मैं बात करके देखती हूं।" मैंने कहा।
मैंने उनको बोल तो दिया था लेकिन मन ही मन डर लग रहा था कि कैसे बात करूं?रात को खाना खाने के बाद मैंने पापा से पूछा, "पापा, आन्टी बोली रही थी कि मैं काॅलिज के बाद उनकी हेल्प करवा दूं।"पापा मेरी तरफ देखते हुए बोले, "तू सोच इस बारे में। लेकिन तेरी पढ़ाई पर इसका असर नहीं पड़ना चाहिए।" मैंने खुश होते हुए कहा, "पापा, मैं अच्छे से पढ़ूंगी।" पापा मुस्कुराते हुए बोले, "बहुत दिन हो गए तूने कुछ मीठा नहीं खिलाया।" मैं हंसते हुए बोली, "अभी हलवा बना कर लाती हूं।" हलवा सबने मिलकर खाया। अब मैं और बिजी हो गई। काम के साथ साथ पढ़ाई भी करनी थी अच्छे से।उधर खत में वेदान्त ने फोन नम्बर मांगते हुए कहा, "अब तो मोबाइल भी आ गए हैं। अबकी बार नम्बर भी भेजना क्योंकि कभी तुम से बात करने का मन हुआ या कुछ इमरजेंसी हुई तो।" मैंने ज़बाब में लिखा, "पापा के पास ही मोबाइल रहता है अगर उनको पता चल गया तो बहुत बड़ी दिक्कत हो जाएगी। और वैसे भी खत तो समय से आ जाता है।उसका ज़बाब आया, "ठीक है। अगर किसी दिन खत देख लिए तो क्या बोलोगी?" मैंने ज़बाब में लिखा, "उसकी चिंता तुम मत करो। क्योंकि खत पढ़ने के बाद में खत फाड़ देती हूं। और प्लीज बुरा मत मानना। क्योंकि मैं रिक्स नहीं ले सकती।पता नहीं वो करता सोच रहा होगा लेकिन जब उसका खत मिला तो मेरे मन का सारा बोझ उतर गया, "तुम चिंता मत करो। मैंने बुरा नहीं माना। तुम खत के ज़बाब देती हो वही काफी है। वैसे मैं भी पढ़ने के बाद फाड़ देता हूं। और हां तुमने जो अबकी बार डाइंग भेजी थी। वो बहुत अच्छी थी। तुम पेंटिंग क्यो नही सीख लेती।" मैंने उसको नहीं बताया था कि मैं पार्टटाइम जॉब कर रही हूं। इसलिए ये कह कर टाल दिया कि सोचूंगी।
इधर एक्जाम आने वाले थे, उधर आन्टी के पास काम भी ज्यादा आ रहा था तो उनको भी समय ज्यादा देना पड़ रहा था। इसलिए मैं खत लेने भी नहीं गई। सोचा अभी तो खत आया ही था, एक्जाम के बाद आराम से जाऊंगी। वैसे भी उसके भी तो एक्जाम होंगे तो कहां खत लिखा होगा।
लास्ट एक्जाम देने के बाद, काॅलिज से आते समय पोस्ट आफिस गई तो अंकल ने दो खत देते हुए बोला, "ये लो बेटा, तुम्हारे खत। बहुत दिनों बाद आई हो।" अब अंकल भी मुझे पहचान गए थे। मैं मुस्कुराते हुए बोली, "हां, अंकल, एक्जाम थे ना उसी में बिजी थी।" खत लेकर बाहर तो आ गई थी लेकिन समझ नहीं आ रहा था कि जब मैंने पहले खत का जबाव नहीं दिया तो उसने दूसरा खत क्यो लिखा?
मैंने खत खोल कर पढ़ना शुरू किया। खत का एक एक शब्द आज अलग ही नजर आ रहा था। मेरे मन का तूफान रूकने का ही नाम नहीं ले रहा था। दिमाग तो जैसे काम ही नहीं कर रहा था। पता नहीं कितनी देर तक मैं ऐसे ही बैठी रही। जब थोड़ा होश आया तो कांपते हुए हाथों से खत ऊपर उठाया और सोचा कि जो पहले पढ़ा वो बदल जाए। इसलिए दुबारा पढ़ना शुरू किया, "हैल्लो, कैसी हो? पता है इस बार खत जल्दी लिख रहा हूं। पर क्या करूं बात ही कुछ ऐसी है। तुम तो जानती हो कि जल्द ही मेरे फाइनल ईयर के एक्जाम होने वाले हैं। और मेरे पापा चाहते हैं कि मैं अपने भाई कि तरह उनका बिजनीस में हाथ बटंवाऊ। उसमें मुझे भी दिक्कत नहीं है। पर वो मेरी शादी भी करवाना चाहते हैं। पता है तुम्हारे लिए मुश्किल है लेकिन मैं तुमसे प्यार करता हूं तो किसी और से कैसे शादी कर सकता हूं? मैं ये नहीं कह रहा कि हम अभी शादी कर लेंगे। लेकिन मैं तुम्हारे मन की बात जानना चाहता हूं। तुम्हारे जवाब का इंतजार करूंगा।"
मैंने आंखें बंद कि और सोचा कि क्या करूं? फिर दूसरे खत के बारे में याद आया। आंखें खोल कर दूसरा खत पढ़ा, "करता हुआ? तुमने जबाव नहीं दिया। पता नहीं तुम को खत मिला भी है या नहीं। मैं तुम्हारे खत का इंतजार कर रहा हूं। इस बार जल्दी जवाब देना।" ये खत पांच दिन पहले आया था। मुझे खुद ही समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं? किसी से इस बारे में बात भी नहीं कर सकती थी। मुझे जो फैसला लेना था वो खुद ही लेना था।रात भर नींद नहीं आई। सोचती रही कि क्या करूं? क्या ये उसका मजाक है? नहीं आज तक इतने सालों में उसने कोई मजाक नहीं किया। फिर वो ऐसा मजाक क्यो करेगा? अगर ये सच हुआ तो। सोच रही थी उसका फोन नम्बर होता तो कम से कम बात ही कर लेती। एक तरफ मेरे घर वाले। अभी तो मैं 11वी में हूं। पापा चाहते हैं कि मैं पढ़ू। और मैं भी तो पढ़ना चाहती हूं। कम से कम गे्जुएट तो कर लूं। इतनी जल्दी घर वाले नहीं मानेंगे। दूसरी तरफ वेन्दात। उसके लिए मेरे मन में जो प्यार है उसको कैसे अनदेखा कर दूं? जो उसके बारे में सोचती हूं उसको कैसे भूल जाऊं? पर क्या उसके घर वाले मान जाएंगे? भगवान अब आप ही मदद कर सकते हो। वो रात भी लम्बी लग रही थी। आंखों से नींद भी गायब थी। जैसे तैसे वो रात बीती। और मैं फैसला ले चुकी थी।अगले दिन घर वाले से बच कर खत लिखने बैठ गई। जानती थी फैसला लेना मुश्किल है लेकिन फैसला लेना तो था। जानती थी कि इस खत के बाद मैं बहुत पछताऊंगी। पर मैं फैसला ले चुकी थी और सबकी भलाई इसी में थी। मैं सेलफिश नहीं हो सकती थी।कांपते हुए हाथों से लिखना शुरू किया, "एक्जाम की वजह से कल खत लेने गई थी। पढ़े तुम्हारे दोनों खत। बहुत सोचा कर से मैंने इस बारे में। मैंने तुम्हें बस अपना फै्न्ड ही मना है इससे ज्यादा कुछ नहीं। बधाई हो तुम्हारे बिजनीस के लिए और हां शादी के लिए भी।अब से मुझे खत मत लिखना। हम दोनों के लिए यही सही होगा।" खत की आखिरी लाइन लिखते लिखते आंसू आ गए। आंसू जल्द ही बाजू से पोछ लिए कि कहीं खत पर ना गिर जाए। बिना कुछ ओर सोचे खत को लिफाफे में डाल कर पैक कर दिया। घर से बहाना बनाकर पोस्ट करने के लिए निकल गई। पोस्ट बाक्स में लिफाफा डालने से पहले सोचा कि डालूं या नहीं। मन हुआ कि नहीं डालूं पर दिमाग ने कहा डाल दे। यही सही है उसके लिए भी। उसको उम्मीद देना ठीक नहीं होगा। कुछ दिनों में वो सबकुछ भूल जाएगा। अन्दर से आवाज आई, "और तू?" गहरी सांस लेते हुए बड़बड़ाई, "शायद मैं भी।" बिना आगे कुछ सोचे खत डाल दिया। डालने के बाद होश आया। क्यो डाला? मन तो हुआ निकाल लूं। लेकिन ताला लगा हुआ था।
भारी कदमों से घर वापस आ गई। आते ही बिस्तर पर लेट गई। मम्मी ने चिंता से पूछा, "निशा, क्या हुआ? सुबह से देख रही हूं तेरे को। तबियत तो ठीक है तेरी।" मैंने भर्राये हुए गले से कहा, "हां तबियत तो ठीक है। तक गई हूं एक्जाम की वजह से।" "ठीक है। आराम कर। माया को बोल देती हूं कि वो कविता की मम्मी को बोल देगी कि तू नहीं आ रही।" मम्मी माया को आवाज लगाते हुए बाहर निकल गई। और मैं तकिए को लेकर बहुत रोई।कुछ दिनों बाद, दर्द तो कम नहीं हुआ लेकिन दर्द के साथ जीने की आदत पड़ गई। एक दो बार पोस्ट आफिस जाकर भी पूछा कि कोई खत आया है क्या? पर कोई खत नहीं आया। धीरे धीरे जिन्दगी पहले जैसी हो गई लेकिन उसको भूला पाना आसान नहीं था।
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